Book Title: Jain Subodh Gutka
Author(s): Chauthmal Maharaj
Publisher: Jainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam

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Page 337
________________ (३२६) जैन सुवोध गुटका। Amrianraiminamawiwwmarrrrrrrrrrrmmmmmmmmmmmmm নয় ২৪ .: (तर्ज -कांटा लागोरे). ... सञ्च देव वहीं तुम मानो, जिसमें दोष अठारह नाय । दोप अठारह नाय | उनके वन्दो नित तुम पाय ।। टेर ।। दान, लाभ, भोग, उपभोग, अन्तरायवीर्य, का हुआ वियोग, । हास्य, रति, अरति, दुगच्छा, दीनी दूर इंटाय ॥ १ ॥ भय, शोक," और काम, निवारा, मिथ्यात्व," अज्ञान," से किया किनारा, निन्द्रा, अव्रत,'". राग-द्वेप लिये जीत विजय पाय ॥ २॥ धन धानि कर्म . हटाया, अनन्त ज्ञान दर्शन प्रब टाया, महिमा फैली तीन लोक में सुरनर भी.गुणगाया ॥ ३ ॥ ऐसे देव को जो नर ध्यांव, स्वर्ग मोक्ष का वह फल पावे, आवागमन मिट जाये, संशय इस में तूं मत लाय ॥ ४ ॥ गुरु प्रसादे चौथमल गाया, सच्चे देव का चिन्ह बताया । साल सित्यासी नगर शहर में दियो चौमासा ठाय ॥ ५ ॥ :: : . . . .. . . . . नंवर ४४६ ... . (तर्ज-मर्द बनो मर्द बनो) : दया करो, सब भारतवासी दया करो दया करो ॥ध्रुव ॥ देवी स्थान में तुम जा जा के, टोनगें बकरे को ला ला के। मत प्राण हरों-प्राण हरो हरंगीन मत उन के

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