Book Title: Jain Subodh Gutka
Author(s): Chauthmal Maharaj
Publisher: Jainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam

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Page 335
________________ जैन मुदोध गुटका। (३२७) लाकर क । क्यों भरते हो तुम पाप पिएड, वे हक का पैसा खा करके ॥ टेर ॥ देते थे उलटा द्रव्य हजारों का, लड़की को माता पिता । निक्ष्य बनके अवतो .चे, वे लोग लाज विसग करके ॥ १ ॥ नहीं देखे बुढा चालक, हो लोभ बीच बनते अंध । नहीं सोचे कृत्याकृत्य, ढकेले कूप चीच जा करके ॥ २ ॥ बोर मोगरी मालन जूं, बेचे है बाजार में जा करके । वैसे ही कन्या को देते, फिर रूपे नगद गिनवा करके ॥३॥ जहां देते वहां वो जाती है नहीं करती है इन्कार कभी । नहीं जोर जवर दिखलाती है, रहती है वो शरमा करके ॥ ४ ॥ हरगिज न होगा कभी भला, वे हक का धन को खाने से । कहे चौथमल हरदम तुम से यह भजन सतारे गा करके ॥ ५॥ नंवर ४४३ . . . (तर्ज-शिक्षा दे रही जी हम को रामायण) . . . इन्हें तुम · त्यागियोरे, भारत देश हितेच्छु प्यारो ॥ ध्रुव ॥ विड़ी सिगरेट और तमाखू को, मत पीना माई । फिजूल खर्ची वन्द करो तुम, 'श्रादत बुरी मिटाई ॥ १ ॥ गांजा पिकर प्यारो तुमतो, सीना नाहक जलाते । तरुणपने में खांसी हो कर, जल्दी कई मरजाते ॥ २॥ भूल कभी मत पियो भंग को, करती है नुकसान । पागल जैसा बना

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