Book Title: Jain Subodh Gutka
Author(s): Chauthmal Maharaj
Publisher: Jainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam

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Page 325
________________ जैन सुबोध गुटका। (३७), संग भी कीजो मती ॥ टेर ।। है बुरी ये चीज ऐसी, खर नहीं खाता इसे. । इन्सान होके पीने को तूं, किस तरह लाता इसे । इसे जान अशुद्ध चित्त दीजो मती ॥१॥ देख पीते और को जाते हैं वहां पर दौड़कर । चाहे जितना कार्य हो, पीवेगा सबको छोड़कर ॥ ऐसी आदत से हरदम रीमो मती ॥ २ ॥ उत्तम से लेकर शूद्र तक की, एक हो जाती चिलम । शुद्धता. रहती नहीं, दे छोड़ तू मत कर विलम्ब ॥ अपने घर से चिलम कभी छूजो मती ॥३॥ देता तमाखू दान वह, दाता नरक में जायगा। देखो पुराण में साफ ही लिखा तुम्हें मिल जायगा ॥ मिले मुक्त तो भी तुम लीजो मती ॥ ४ ॥ जाता है पैसा गांठ का, होती है फिर बीमारियां । चौथमल कहे छोड़ दो, भारत के नर और नारियां ।। सुनके बात मेरी तुम खीजो मती॥५॥ नम्बर ४३० (तर्ज-पूर्ववत् ) , कभी चहा की चाह तुम कीजो .मती। प्राण नाशक समझ तुम पीजो मती ॥टेर ॥ परतन्त्र मारत हो गया आधीन होके चाय के । कान्ति रूपी रत्न को, खोया होटल में जाय के ॥ इस में फंस के प्राण तुम दीजो मती ॥१॥ एक बार चा..का गौपानी, कोप भर के.पी.लिया। है छूटना.मुश्किल फिर, उपाय चाहे सो किया । निमरी इस

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