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जैन सुबोध गुटका।
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इसे विसरना ना चहिये ॥ २॥ सम दृष्टी होकर तुझको, राग द्वेप तजना चहिये । श्रावक होकर भैरू भवानी नहीं भजना चहिये । विश्वास देकर नहीं बदलना, अनरथ घडना ना चहिये । सुरासुर मिथ्यात्वी डिगाव, तुझको डिगना ना चहिये। धर्म करनेमें तेरेको कभी नहीं लजना चाहिये ॥३॥ हिंदू होकर जीव की हिंसा, तुझको करना ना चहिये । ब्राह्मण होकर तेरेको, ब्रह्मध्यान धरना चहिये । क्षत्री होकर रक्षा करना, दुश्मन से डरना ना चाहिये । वैश्य होकर श्रद्धा रख, दातापन धरना चहिये । जमीकंद रात्रीभोजन अब तुझको परहरना चहिये॥४॥ संसारमें तिरना क्या मुश्किल दयाधर्म रुचना चहिये । पवित्रहोकर दारु मांस से, तुझे बचना चहिये । धन कुटुंब आवे कर संग, फिर नाहक क्यों पचना चहिये । काम भोग के कीचमें, तुझको नहीं फसना चहिये । चौथमल कहे झूठ गवाह को, कभी नहीं भरना चहिये ॥५॥
५३ नीति का प्रकाश. (या हसीना वस मदीना करबला में तू न जा)
उज्ज्वल नीति की रीति से, प्रीति करो मेरे सजन । विजय हो संसार में, ऐसी नीति हैगा रवन ॥ टेर ॥ नीति से भय नाश हो, यश चन्द्रमा परकाश हो। सर्व लोक को विश्वास हो, जो कुछ करे वह नर कथन ॥१॥ नीति से इज्जत बढ़े, सरकार भी शादर करे । शृङ्गार यह सबसे