Book Title: Jain Siddhant Pravesh Ratnamala 04
Author(s): Digambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 10
________________ (१०) त्याग करै त्यागी पुरुष, जाने आगम भेद ।। सहज हरप मन मे धरै, करै करम को छेद ।। (११) चेतन तुम तो चतुर हो, कहो भए मति हीन। ऐसौ नर भव पाय के, विषयन मे चितलीन ॥ (१२) चेतन रुप अनूप है, जो पहिचाने कोय । तीन लोक के नाथ की, महिमा पावे सोय ।। (१३) जाके गुणता मे बसे, नही ओर मे होय । सूधि दृष्टि निहारते, दोष न लागे कोय ॥ (१४) जो जन परसो हित करै, चित सुधि सवै विसार । सोचिन्तामणि रतन सम, गयो जन्म नर हार॥ (१५) जो घर तजयो तो क्या भयो, राग तजो नहिं वीर । साप तजै औ कचुकी, विष नही तजै शरीर ।। (१६) क्रोध मान माया घरन, लोभ सहित परिणाम । यही ही तेरे शत्रु है, समझो आतम राम ।। (१७) राग द्वष के त्याग विन, परमातम पद नाहि । कोटि-कोटि जप तप करो, सबहि अकारथ जाहि ॥

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