Book Title: Jain Siddhant Pravesh Ratnamala 04
Author(s): Digambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 18
________________ (८) गझना कि धर्मी को शुभभाव होता ही नहीं, किन्तु वह शुभभाव को म अथवा उससे कमश धर्म होगा-ऐसा नहीं मानता, क्योकि नन्त वीतराग देवो ने उसे वन्ध का कारण कहा है। (५) एक द्रव्य सरे द्रव्य का कुछ कर नहीं सकता, उसे परिणमित नहीं कर सकता, 'रणा नहीं कर सकता; लाभ-हानि नहीं कर सकता, उम पर प्रभाव ही डाल सकता, उसकी सहायता या उपकार नहीं कर सकता, उसे बार-जिला नही सरता; ऐसी प्रत्येक द्रव्य-गुण-पर्याय की सम्पूर्ण चतन्यता अनन्त शानियो ने पुकार-पुकार कर कही है । (६) जिनमत मे तो ऐगा परिपाटी है कि प्रथम सम्यक्त्व और फिर व्रतादि होते हैं। वह सम्यक्त्व स्व-परका श्रद्धान होने पर होता है तथा वह श्रद्धान दव्यानुयोग का अभ्यास करने से होता है । इसलिए प्रथम द्रव्यानुयोग के अनुसार श्रद्धान करके सम्यग्दृष्टि बनना चाहिए। (७) पहले गुणस्थान मे जिज्ञासु जीवो को शास्त्राभ्यास, अध्ययन-मनन, ज्ञानी तुरुपो का धर्मोपदेश-श्रवण, निरन्तर उनका समागम, देवदर्शन, पूजा, भक्तिदान आदि शुभभाव होते हैं। किन्तु पहले गुणस्थान मे सच्चे बत, नप आदि नही होते हैं। प्रश्न १८-उभयाभासी के दोनो नयो का ग्रहण भी मिप्या पतला दिया तो वह क्या करे? (दोनो नयो को किस प्रकार समझे ?) उत्तर-निश्चयनय से जो निरुपण किया हो उसे तो सत्यार्थ मानकर उसका श्रद्धान अगीकार करना और व्यवहारनय से जो निरुसण किया हो उसे असत्यार्थ मानकर उसका श्रद्धान छोडना। प्रश्न १६--व्यवहारनय का त्याग करके निश्चयनय को अंगीकार करने का मादेश कहीं भगवान अमृतचन्द्राचार्य ने दिया है ? __उत्तर-हा, दिया है । समयसार कलश १७३ मे आदेश दिया है क "सर्व ही हिसादि व अहिंसादि में अध्यवसाय है सो समस्त ही छोडना-ऐसा जिनदेवो ने कहा है। अमृतचन्द्राचार्य कहते हैं किइसलिये मैं ऐसा मानता है कि जो पराश्रित व्यवहार है सो सर्व ही

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