Book Title: Jain Shiksha Digdarshan Author(s): Publisher: ZZZ Unknown View full book textPage 8
________________ जंगत तो ईश्वर से विलक्षण है । इसलिए स्वामिसेवकभाव ही होना उचित है और स्वामिसेवक-भाव भी. जब अनादि माना जाय तभी तो ईश्वर में ईश्वरत्व सिद्ध होगा और यदि ईश्वर तथा जगत् अं. नादि हैं तो ईश्वर में कर्तृत्व कल्पित होगा । यदि ईश्वर में कर्तृत्व सिद्ध करने के लिए ईश्वर के बाद जगत् माना जाय तो ईश्वर में ईश्वरत्व किसकी अपेक्षा से होगा ?, क्योंकि ईश्वर शब्द सापेक्ष ही है। अगर कोई ईश्वर को रूढ शब्द मानकर जगत् के पूर्वकाल में भी उसकी स्थिति माने तो वर्तमानकाल में भी ईश्वर शंब्दका जहाँ कहीं प्रयोग किया जाता है वहाँ रूढही क्यों न माना नाय ? । अर्थात् ईश्वर शब्द का जहाँ जहाँ लोग प्रयोग करते हैं वे सभी वैसेही माननीय पूजनीय क्यों न गिने जायें। .. दूसरी यह शङ्का उत्पन्न होती है कि ईश्वर शरीरी है या अशरीरी ? यदि अशरीरी कहा जाय तो उसमें कर्तृत्व का अभाव सुतरां सिद्ध है; क्योंकि जितने कर्ता होते हैं वे सब शरीरी ही देखने में आते हैं। यदि ईश्वर को भी शरीरी ही मानें, तो वह लावयव है या निरवयव ? | निरवयव पक्ष तो शरीरी में कहना ही, अनुचित है; क्योंकि ऐसा कहने से उसमें कर्तृत्वाभाव आपसे आप सिद्ध होजाता है। और यदि सावयव पक्षही स्वीकार करिएगा तो ईश्वर भी कार्यकोटिप्रविष्ट हो जायगा । क्योंकि सावयव कार्यही होता है, और जब ईश्वर कार्य हुआ तो उसका भी कोई कर्ता होना दी चाहिये । फिर आगे भी यही युक्ति दिखाई जायगीPage Navigation
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