Book Title: Jain Shiksha Digdarshan
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 10
________________ पहिले कर्म नहीं थे, किन्तु ईश्वर ने नए ही रचे हैं, तो यह बात बुद्धिमानलोग कदापि युक्तियुक्त नहीं मानेंगे क्योंकि जब कर्म नहीं थे तब जीव परमसुखी आनन्दमय निरुपाधिवाले ही होंगे, तो वे जीव सोपाधिक किस कारण से किए गए ? । यदि क्रीडामात्र के लिए ऐसा किया, तो क्या अपनी क्रीड़ा के लिए दूसरे का प्राण लेना ईश्वर के लिए उचित है ? । और यह भी बात, . है कि ईश्वर ने ही जव कर्म बनाए तव सबको समान ही होने चाहिए। और कर्म के समान होने पर जगत् की विलक्षणता कुछ भी न रहनी चाहिए। अगर कोई यह कहे कि-पहिले कर्म समान ही थे और जगत् भी एकाकार ही था, किन्तु पीछेसे उसमें फेरफार हुआ है। तो यह भी ठीक नहीं । सामान्य कारीगर की कारीगरी भी एकाकार आधन्त देखी जाती है तो भला ईश्वर की कारीगरी विलक्षण स्वभाववाली होजाय, यह क्या कभी संभवित हो सकता है ? । इत्यादि अनेक दूषण संमतितर्क, स्याद्वादरत्नाकर, अनेकान्तजयपताका, रत्नाकरावतारिका, स्याद्वादमञ्जरी आदि अनेक ग्रन्थों में दिखलाए हैं। इसीलिए अहेन जगत् का कर्ता नहीं माना गया है। __अर्हन देव अपने केवलज्ञानद्वारा पदार्थों को जानकरके फिर सवको बता देते हैं। जैनशास्त्र में पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि, वनस्पति, जीव और कर्मादि पदार्थरूपी जगत्-द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से नित्य और पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा से अनित्य मानागया है । जिसका खुलासा स्यावाद प्रकरणमें आगे किया जायगा। ..

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