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(३७) जिस अर्हन, देव परमात्मा ने अपने केवलज्ञानद्वारा उत्पाद होता है, उसी समय विनाश नहीं हो सकता । यदि स्वीकार भी किया जाय तो वस्तुतः क्रम से होने वाले उत्पाद और विनाश का ज्ञान प्रमाता को स्पष्ट नहीं होसकेगा । अत एव 'तद्भावाव्ययम्' यही नित्यं का लक्षण ठीक है। अर्थात् जब आत्मा मनुष्य के पर्याय को छोड़कर देवतापर्याय को प्राप्त होता है तब उसका किसी अंश में उत्पाद और किसी अंश में विनाश होता है, किन्तु 'चेतन द्रव्यरूप ' तदभाव का कदापि नाश नहीं होता। और मूलस्वभाव का नाश न होना ही नित्यता है । जैसे मृत्तिका के पर्याय हजारों रहें और उनमें उत्पाद विनाश भी होता रहे, किन्तु मृत्तिका का अस्तित्व तो कदापि नष्ट नहीं होसकता । बैसेही वस्तु का ' अर्थक्रियाकारित्व ' लक्षण भी एकान्त नित्य पक्ष •में नहीं घटता है। क्योंकि नित्यपदार्थ से उत्पन्न हुवा अर्थक्रियाकारित्व भी नित्य हो, यह अनुभव विरुद्ध है। इसी रीति से अनित्यपदार्थ से उत्पन्न हुआ कार्य अनित्य ही हो, यह भी ठीक नहीं हो सकता है, क्योंकि तन्तु (डोरों) से उत्पन्न हुए पटात्मक कार्य से शीतनिवारणरूप अर्थक्रिया को, हमलोग न तो यावतकाल (सर्वदा)
और न केवल क्षणमात्र ही अनुभव करते हैं किन्तु चिर (बहुत ) काल तक ही अनुभव करते हैं, अत एव कथञ्चिद् नित्य और कथञ्चित् अनित्य पक्ष ही सर्व क्रिया का साधक है। इस विषय में श्रीहरिभद्रसूरिकृत अनेकान्तजयपताका को आधन्त देखने की सूचना मैं आप लोगों को देता हूं। उसमें पहिले स्यावाद का