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(३६) नहीं है। क्योंकि अभेद पक्ष में कौन धर्मी, और कौन धर्म है, यह विवेचन ही नहीं होसकता। अत एव वस्तुमात्र को, स्यादवादनरेन्द्र-मुद्रामुद्रित होने से, किसी प्रकार से भिन्न और किसी प्रकार से अभिन्न मानना ही उचिंत है।
१-वस्तु का लक्षण अर्थक्रियाकारित्वरूप ही सर्ववादिसंमत है किन्तु वह कथंचित् नित्यानित्य पक्षको स्वीकार किये विना ठीक नहीं घट सकता । क्योंकि एकान्त (केवल ) नित्य पक्ष माननेवाले के मत में नित्य का लक्षण 'अप्रच्युतानुत्पन्नस्थिरैकरूप' है । और एकान्त अनित्य पक्ष के माननेवालों के मत में 'यत् सत् तत् क्षणिकं' यह लक्षण है । तब स्यावाद की विशालदृष्टिद्वारा साक्षेप रीति से दोनों पक्ष ठीक देखे जाते हैं। क्योंकि जैनदर्शनकार नित्य का लक्षण 'तद्भावाव्ययं नित्यम् ' कहते हैं, और यही लक्षण ठीक २ घट सकता है। जैसे आत्मा नित्य है, क्योंकि किसीके मत में आत्मा अनित्य नहीं माना हुआ है
और यदि कोई एकान्त अनित्य माने, तो वह नास्तिक कहा जायगा । और आत्मा जब नित्य हुआ तव एकान्त नित्य पदार्थ माननेवाले के मत में उसकी उत्पत्ति और विनाश ( एकान्तनित्यलक्षणानुसार ) नहीं बन सकता। तो फिर जगत् विचित्र स्वभाववाला भी कैसे होसकेगा। और एकान्त अनित्य माननेवाले के मत में भी क्षणिक एक वस्तु में-उत्पाद और विनाश, नहीं सिद्ध होसकते। अर्थात् जब वस्तु ही क्षणिक है, तो उसका जिस समय