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(४२) 'चाहिये, किन्तु उसकी गति में कदापि वाधा नहीं होनी
चाहिये। तव तो मुक्तावस्था के जीवं, मैं अनवस्यि'तिरूप..दोष बना ही रहेगा। इसका : उत्तर यह है कि जैनशास्त्र के माने हुए धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय पदार्थ की जहांतक सत्ता है, वहां ही तक तो लोक है और नहीं उनकी सत्ता नहीं है वहां अलोक माना गया है। .. इसलिये धर्मास्तिकाय तो जीव और पुद्गलों की गति में,
और अधर्मास्तिकाय उनकी स्थिति में सहायक है। • किन्तु लोक के आगे उन दोनों के अभाव होने से यहां
ही तक जीव जासकता है, क्योंकि फिर आगे जाने का फोई कारण ही नहीं है।
.: मनुष्यक्षेत्र पैंतालीस लाख योजन प्रमाणही है और . इसी मनुष्यक्षेत्र से कर्ममुक्त होकर जीव सिद्ध होसकता
है; अतं एव सिद्धक्षेत्र भी उतने ही प्रमाणवाला माना । “गया है । वहाँ पर कर्ममुक्त जीव की. समश्रेणिपूर्वक ..(सीधी) ही गति होती है, इसलिये जो जीव जिस - स्थान से. सिद्ध होता है वह उसी स्थान के ऊपर
लोकाय में स्थित रहता है। यहां पर ऐसी शंका उत्पन्न होने का अवकाश नहीं हैं कि एक ही स्थान से भिन्न भिन्न काल में मुक्त होनेवाले अनन्त जीव लोकाय के : एक ही स्थान में कैसे रह सकते हैं, क्योंकि मुक्त
जीवों के अरूपी होने से उसमें कुछ बाध ही नहीं है । '. " इसीलिये वहाँ पर द्रव्यप्राण को छोड़कर [केवलज्ञान . और केवलदर्शन रूप] भावप्राण के साथ जीव जाता है,
और उस समय उसमें कर्म के अभाव होने से विग्रह ....[वक्र ] गति होने की भी संभावना ही नहीं है।