Book Title: Jain Shiksha Digdarshan
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 42
________________ (४०) नरकगतिरूप संसार का कारण पाप है। क्योंकि पुण्य और पापका कारण कर्म है और कर्म का कारण पुण्य पाप है। इसलिये कर्म और पुण्य का अन्योन्य कार्यकारणभाव माना जाता है । उसी तरह संसार और कर्म का अन्वयव्यतिरेक है, अर्थात् कर्म की सत्ता में संसार की सत्ता, और कर्म के अभाव में संसार का अभाव है। अथवा कर्म और संसार का भी अन्योन्य कार्यकारणभाव सिद्ध हो शकता है । अर्थात् कर्म से संसार, और संसार से कर्म का उद्भव है । अत एव कर्मनाश करने के लिये जिन भावनाओं का स्वरूप मैं आगे दिखलाता हूँ, उनपर जीवों को विशेष ध्यान देना चाहिये । अर्थात् कोई नीव पाप न करे, या कोई दुःखी न हो, और सब का मोक्ष हो, इस मैत्री भावना पर ध्यान देते हुए, गुणीजनों को देखकर आनन्दित होना, और उनके गुणों पर रागदृष्टि करना, इस प्रमोदभावना से प्रमोदपूर्ण रहना चाहिये। किन्तु दीन, आर्त, भयभीत और जीवित की याचनाकरनेवाले पर तो यथाशक्ति (उपकाररूप ) कारण्यभावना से सदाही भावितात्मा रहे । और उसीरीति से हिंसादि क्रूर कर्म, देवगुरु की निन्दा, एवं व्यर्थ आत्मप्रशंसा करनेवाले पुरुष में ( उपेक्षाबुद्धिरूप) माध्यस्थभावना रखना उचित है । जो पुरुष इन पूर्वोक्त चार भावनाओं को अपने हृदयादर्श में प्रतिविम्बित हमेशा रक्खेगा, वही वीर प्रभु की आज्ञा को वस्तुतः पालन कर सकेगा। समय के अल्प होने से जो अनित्यादि बारह भावनाओं का स्वरूप माना गया है वह इस समय नहीं

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