Book Title: Jain Shiksha Digdarshan
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

View full book text
Previous | Next

Page 36
________________ (३४) सज्जनो! नैयायिक तम को तेजोऽभावस्वरूप कहते हैं और मीमांसक पत्र वैदान्तिक बड़ी आरभटी से उसका खण्डन करके उसे भावस्वरूप कहते हैं, तो देखने की बात है कि आज तक इसका काई फैसला नहीं हुआ कि कौन ठीक कहता है, तो अब क्या निर्णय होगा कि कौन वात ठीक है । तब तो दोकी लड़ाई में तीसरे की पोबारा है, याने जैन सिद्धान्त सिद्ध हो गया, क्योंकि वे कहते हैं कि वस्तु अनेकान्त है उसे किसी प्रकार से भावरूप कहते हैं, और किसी रीति पर अभावस्वरूप भी कह सकते हैं। इसी रीति पर कोई आत्मा को झानस्वरूप कहते हैं और कोई ज्ञानाधारस्वरूप बोलते हैं तो बस अब कहनाही क्या? अनेकान्तवाद ने पद पाया। इसी रीति पर कोई ज्ञान को द्रव्यस्वरूप मानते हैं और कोई वादी गुणस्वरूप । इसी रीति पर कोई जगत् को भावस्वरूप कहते हैं और कोई शून्यस्वरूप; तव तो अनेकान्तवाद अनायास सिद्ध होगया" महाशयो! स्यावाद एक ऐसा अभेद्य किला है जिसका आशय समस्त दर्शनकारों ने लिया है । देखिये ! साख्यवादी ने एक धर्मि में विरुद्ध धर्म स्वरूप, अनेक अवस्थाएँ मानी हैं-जैसे प्रकृति में प्रसाद, सन्तोष, देन्यादि अनेक विरुद्ध धर्म स्वीकार किये हैं। उसी रीति से नैयायिकों ने भी एक पदार्थ में नित्यत्व और अनित्यत्व विरुद्ध धर्म स्वीकार किये हैं। और बौद्ध लोगों ने भी मेचक ज्ञान में नील पीतादि चित्र ज्ञान भी माने हैं। तथा मीमांसाकार ने भी प्रमाता, प्रमिति

Loading...

Page Navigation
1 ... 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49