Book Title: Jain Shiksha Digdarshan
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 34
________________ (३२) और उत्तर कलिका का उत्पाद होता है, किन्तु 'यह दीपकलिका वही है' यह ज्ञान तो तेजोद्रव्यरूप पुद्गल ही अनुगत कराते हैं, इसलिये तेजोरूप पुद्गल नौव्य ही हैं। क्योंकि दीपपर्याय के नाश में पुद्गलत्व का नाश नहीं होता, किन्तु केवल तेजोद्रव्यपर्याय को छोड़कर अन्धकारपर्याय को स्वीकार कर लेता है। और जैनशास्त्रकारों ने बड़ी युक्तिपूर्वक अन्धकार को भी द्रव्य स्वीकार किया है। नैयायिकों ने भी अगत्या आकाश में संयोग विभाग मानकर, नित्यत्वानित्यत्व स्पष्ट किया है। क्योंकि ज्ञानादि (गुण · की तरह संयोग विभाग भी नित्य न होने से अनित्य ही हैं। और जिसके गुण अनित्य होते हैं वह पदार्थ भी यदि कथञ्चित् अनित्य माना जाय तो कोई हानि नहीं देख पड़ती। आजकल स्याद्वाद का सच्चा स्वरूप प्रायः बहुत लोग नहीं जानते हैं इसलिये यदि उसकी कुछ अधिक व्याख्या की जाय तो मेरी समझमें अरुचिकर नहीं गिनी जायगी। महाशयो! त्याद्वाद से यह तात्पर्य नहीं है कि । शीतत्व के समय उष्णत्व भी हो, किन्तु सापेक्षभाव से एक वस्तु में अनन्त धर्मों के समावेश होने का संभव माना गया है । क्योंकि इस स्याद्वाद के रचयिता वे सर्वज्ञ अर्हन् देव थे जिनका स्वरूप संक्षेप रीति से पहिले ही कहा जा चुका है। इसलिये उनको कहे हुए एक भी पदार्थ में विसंवाद होने का कदापि संभव ही

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