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इसी विषय में काशीनिवासी महामहोपाध्याय श्रीरा ममिश्र शास्त्रीजी ने भी थोड़े ही शब्दों से अपने 'सुजनसंमेलन' नामक व्याख्यान में कहा है कि
" अनेकान्तवाद तो एक ऐसी चीज है कि उसे सब को मानना होगा, और लोगों ने माना भी है । देखिये, विष्णुपुराण में लिखा है
नरकस्वर्गसंज्ञे वै पुण्यपापे द्विजोत्तम ! | वस्त्वेकमेव दुःखाय सुखायेर्ष्यार्जवाय च । कोपाय च यतस्तस्माद्वस्तु वस्त्वात्मकं कुतः ? |
यहाँ पर जो पराशर महर्षि कहते हैं कि वस्तु वस्त्वात्मक नहीं है, इसका अर्थ यही है कि कोई भी वस्तु एकान्ततः एक रूप नहीं है। जो वस्तु एक समय सुख हेतु है वह दूसरे क्षण में दुःख को कारण होजाती है, और जो वस्तु किसी क्षण में दुःख की कारण होती है वह क्षण भर में सुख की कारण हो जाती है । सज्जनों ! आपने जाना होगा कि यहाँ पर स्पष्टही अनेकान्तवाद कहा गया है । सज्जनो ! एक बात पर और भी ध्यान देना । जो -- सदसद्भ्यामनिर्वचनीयं जगत् ' कहते हैं उनको भी विचारदृष्टि से देखा जाय तो अनेकान्तवाद मानने में उम्र नहीं है; क्योंकि जब वस्तु सत् भी नहीं कही जाती और असत् भी नहीं कही जाती तो कहना होगा कि किसी प्रकार से सत् होकर भी वहं किसी प्रकार से असत् है, इस हेतु, न वह सत् कही जा सकती है और न तो असत् कही जा सकती है, तो अव अनेकान्तता मानना सिद्ध होगया ।