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(२७) यहां तक देव और गुरुरूप-नींव तथा दीवाल की व्याख्या संक्षेप से की गई, अब उन दोनो के बल से स्थित धर्मरूप धरन की भी व्याख्या करने का प्रारम्भ करता हूँ
" यतोऽभ्युदयनिःश्रेयससिद्धिः स धर्मः ॥ अथवा" दुर्गतौ प्रपतन्तमात्मानं धारयतीति धर्मः " किंवा दुर्गतिप्रपतत्प्राणिधारणादू धर्म उच्यते " इत्यादि । धर्म का लक्षण सामान्य रीति से तो यही है, किन्तु उसके विशेषस्वरूप की विवेचना आगे की जाती है।
.यधपि धर्म का न तो कोई रूप है और न कोई रंग है तथापि केवल शुभप्रवृत्ति को द्रव्यधर्म कहते हैं और आत्मशुद्धि को भावधर्म मानते हैं। इन दोनों में द्रव्यधर्म सांसारिक सुख का कारण प्रत्यक्ष सिद्ध है* किन्तु पुण्यरूप होने के कारण, वह भी परम्परा से मोक्ष का भी कारण दिखलाया गया है।
वस्तुगत्या धर्म में भेद प्रभेद नहीं हैं, किन्तु धर्मसाधन के कारण भिन्न भिन्न होने से धर्म के भी भेद
नत्थि य सि कोइ बेसो पिओ च सम्वेसु चेव जीवेसु। पएण होइ समणी पसी अन्नोवि पजाओ ॥१६० ।। तो समणो नइ सुमणो भावेण य ज न होइ पावमणो। सयणे य जणे य समो समो उ माणावमाणेसु ॥१६॥
(दशवकालिक नियुक्ति ) * धनदो धनार्थिनां प्रोक्तः कामिनां सर्वकामदः । धर्म एवापवर्गस्य पारम्पर्येण साधकः ॥२॥
(धर्मविन्दु)