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नाश होता है वह सर्वथा विनाशी होता है। जैसे सूर्य की किरणों को ढांकनेवाली मेघघटा आदि का किसी. अंश में क्षय दिखाई देता है इस लिए उसका सर्वथाक्षय भी समझा जाता है, वैसे ही रागादि के विषय में भी समझना चाहिये ।
अब यहां पर एक बड़ी भारी यह शङ्का उत्थित होती है कि जब अर्हन् देव सिद्धपदवी को प्राप्त होगये तब उनके वीतराग होने से उनकी स्तुति (सेवा) या निन्दा ( अनादर ) करने से क्या फल है ? क्योंकि स्तुति करने से न तो वे तुष्ट ही होंगे और न निन्दा, करने से रुष्ट होंगे । इसका यह उत्तर है कि आत्मा को सुख दुःख देनेवाला कोई नहीं है, अगर कोई है तो केवल अपना कर्म ही है और कर्मवन्धन होने का कारण, शुभाशुभ अन्तःकरण ही है । लोक में भी उक्ति है कि " प्रमाणमन्तः :करणप्रवृत्तयः " । और समस्त दर्शनकारों ने, भी कर्म की सत्ता शब्दान्तर से स्वीकार की है एवं फल भी कर्मानुसार ही मानकर अपने २ सिद्धान्त का समर्थन करसके * हैं; केवल कर्मों के जड़ होने से उनका प्रेरक ईश्वर या कोई दूसरा कारण माना है । किन्तु जैन लोग स्वात्मा से भिन्न कोई कारण नहीं मानते । यद्यपि कर्म जड़ है, तथापि उसकी अनन्त प्रकार की शक्तियां हैं । अतएव शुद्ध, बुद्ध, निरञ्जन, अनन्तशक्ति के मालिक आत्मा को अज्ञानी बनाकर अपने आधीन -
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* कर्मणो हि प्रधानत्वं किं कुर्वन्ति शुभा ग्रहाः ! | वसिष्ठदत्तलग्नोऽपि रामः प्रब्रजितो वने ॥ १ ॥
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