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(२३) सवार होते, और धातु के वर्तन, छाता, जूता वगैरह को, भी कदापि ग्रहण नहीं करते । अर्थात् गृहस्थोंके भूषणों को साधु लोग दूषण ही मानते हैं। उसीतरह और भी *दशप्रकार के यतिधर्मों को बड़े यत्न से पालन करते हैं। उन दश धर्मों का समस्त धर्मवेत्ताओं ने अपनी २ बुद्धयनुसार आदर किया है। क्योंकि पञ्चमहाव्रतको धारणकरनेवाला साधु यदि धीर होगा तभी अपने नि. यमों का निर्वाह कर सकेगा, अत एव साधु के लक्षण में धीर होना कहा गया है। इसी तात्पर्य से किसी कवि ने कहा है कि-"धीरस्यापि शिरश्छेदे वीरत्वं नैव मुश्चति" अर्थात् शिरकटाजाने पर भी धीरपुरुष अपनी वीरता को. नहीं छोड़ता; इसलिये साधु को धीर होना चाहिये, क्योंकि धीर पुरुष ही धर्म और कर्म दोनों में विजय लाभ करसकता है। लेकिन खेद की बात है कि आजकल संसार के काम में आलसीही पुरुष प्रायः साधु का. वेष लेते हैं, अत एव वे केवल धर्म के कलङ्कभूतही हैं; क्योंकि साधु लोग, जो जगत् के आधारभूत हैं, उनमें कैसी शक्ति और भक्ति होनी चाहिये, यह पाठक स्वयं
* प्रादुर्भागवतास्तत्र व्रतोपव्रतपश्चकम् ।। यमांश्च नियमान् पाशुपता धर्मान् दशाभ्यधुः ॥१॥ अहिंसा सत्यवचनमस्तैन्यं चाप्यकल्पना। ब्रह्मचर्य तथाऽक्रोधो दार्जवं शौचमेव च ॥२॥ सन्तोषी गुरुशुश्रूषा इत्येते दश कीर्तिताः । निगधन्ते यमाः साख्यैरपि व्यासानुसारिभिः ॥३॥ अहिंसा सत्यमस्तैन्यं ब्रह्मचर्य तुरीयकम् । पञ्चमो व्यवहारश्चेत्येते पञ्च यमाः स्मृताः ॥४॥