Book Title: Jain Shiksha Digdarshan
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 24
________________ (२२) है। दूसरा उनका यह नियम है कि किसी वस्तु को विना पूछे वे ग्रहण नहीं करते; क्योंकि प्राणियों को धन, प्राणतुल्य है और उसका लेना मानों उनके प्राण का ही लेना है। उसी तरह ब्रह्मचर्य का पालन भी अहिंसा के लिये ही करते हैं क्योंकि अहनदेवने केवलज्ञानद्वारा स्त्री के 'गुह्यस्थान ' में द्वीन्द्रिय जीव से लेकर पञ्चेन्द्रिय जीवों तक की उत्पत्ति दिखलाई है। इस बात को वात्स्यायन कामशास्त्रकार और आजकल के डाक्टरों ने भी स्वीकार किया है । इसके अतिरिक्त ब्रह्मचर्य के, न पालने से और भी अनेक दोष उत्पन्न होते हैं-जैसे किसी की स्त्री के साथ व्यभिचार होने से उसके संबन्धियों को जो दुःख पहुँचता है वह भी हिंसाही हुई। किन्तु गृहस्थ लोग विवाहित होकर जो संसार का सेवन करते हैं वे एकांश में ब्रह्मचारी गिने जाते हैं। क्योंकि स्वदारमात्र में संतुष्ट होने से उनका वैसा निन्दनीय कर्म नहीं है, लेकिन फिरभी पूर्वोक्त जीवों की विराधना (हिंसा ) तो अवश्य ही होती है । इस लिये ही वे लोग सर्वथा ब्रह्मचर्यपालनेवाले मुनिवरों की अति संमान पूर्वक सेवा-पूजा करते रहते हैं । उसी रीति से परिग्रह भी पाप का मूल प्रत्यक्ष सिद्धही है, क्योंकि उससे जो हिंता होती है यह स्पष्ट हो मालूम पड़ती है। __ इन पञ्च महाव्रतों के पालन के लियेही साधु लोग गृहस्थों के व्यवहार से विपरीत रहते हैं। और वेष भी गृहस्थों के वेष से भिन्न रखते हैं। इसलिये जैन साधु लोग गाड़ी, इक्का, रेल वगैरह किसी वाहन पर नहीं

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