Book Title: Jain Shiksha Digdarshan
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 18
________________ (१६) किन्तु जहाँ अज्ञान का ही अभाव है वहां पर भय की सत्ता किस तरह हो सकती है ?। एवं अनिष्ट पदार्थ पर घृणा करनाही जुगुप्सा है और वह जगत् पर समभाव रखनेवाले अर्हन्त देव में कदापि होही नहीं सकती। इसीतरह इष्ट वस्तु के वियोग में चित्त की प्रतिकुलता को ही शोक कहते हैं और भगवान में इष्टनिष्ट ही का जब अभाव है तव शोक का समावेश किस रीति से हो सकता है ? । इसमें एक कारण और भी है कि जो अहंन देव स्वयं दुसरेका शोक दूर करने में समर्थ हैं उन्हें शोक कैसे हो सकता है ? | और काम भी अज्ञानजन्य चेष्टारूप ही है किन्तु जहां अज्ञान का स्वप्न में भी संभव नहीं है 'यहां काम किस तरह अपना पद रख सकता है । उसी तरह दर्शनावरणीय कर्म के भेदरूप होने से निद्रा संसारी को ही होती है किन्तु दर्शनावरणीयादि चार घातिकर्म* को विना क्षय किये सर्वज्ञ ही नहीं होता है; तो दर्शनावरणीयकर्म के नाश में निद्रा भी स्वतः नष्ट होजाती है। जैसे ग्राम के अभाव में ग्राम की सीमा का अभाव स्वतः सिद्ध है। दूसरी यह भी बात है कि सामान्य देव भी जव अस्वप्न देव कहे जाते हैं तब सर्वज्ञ देव को निद्रारहित मानने में क्या बाध है। इसीतरह सर्व पदार्थ का भोगाभिलाषरूप ही अविरति है, किन्तु रागद्वेष का ही जहाँ अभाव है वहां भोगाभिलाष भी सुतरां स्थिर नहीं होसकता। शनावरणा अपना पद सा संभव नहीं । • * ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय, और अन्तराय रूप से घातिकर्म चार प्रकार के हैं ।

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