Book Title: Jain Sahityakash Ke Aalokit Nakshatra Prachin Jainacharya
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith
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वचन की तार्किक सिद्धि करना चाहते थे, वहीं दूसरी ओर, क्रमवाद और युगपद्वाद की विरोधी अवधारणाओं का समन्वय भी करना चाहते थे। उनका क्रमवाद और युगपद्वाद के बीच समन्वय का यह प्रयत्न स्पष्ट रूप से यह सूचित करता है कि वे दिगम्बर या यापनीय नहीं थे। यहाँ यह प्रश्न उठाया जा सकता है कि यदि सिद्धसेन ने क्रमवाद की श्वेताम्बर और युगपद्वाद की दिगम्बर मान्यताओं का समन्वय किया है, तो उनका काल सम्प्रदायों के अस्तित्व के बाद होना चाहिए। इस संबंध में हम यह स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि इन विभिन्न मान्यताओं का विकास पहले हुआ है और बाद में साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की प्रक्रिया में किसी सम्प्रदाय विशेष ने किसी मान्यता विशेष को अपनाया है। पहले मान्यताएँ अस्तित्व में आईं और बाद में सम्प्रदाय बनें। युगपद्वाद भी मूल में दिगम्बर मान्यता नहीं है, यह बात अलग है कि बाद में दिगम्बर परंपरा ने उसे मान्य रखा है। युगपद्वाद का सर्वप्रथम निर्देश श्वेताम्बर कहे जाने वाले उमास्वाति के तत्त्वार्थाधिगमभाष्य में है।" सिद्धसेन के समक्ष क्रमवाद और युगपदवाद- दोनों उपस्थित थे। चूंकि श्वेताम्बरों ने आगम मान्य किए थे, इसलिए उन्होंने आगमिक क्रमवाद को मान्य किया। दिगम्बरों को आगम मान्य नहीं थे, अतः उन्होंने तार्किक युगपद्वाद को प्रश्रय दिया। अतः यह स्पष्ट है कि क्रमवाद एवं युगपद्वाद की ये मान्यताएँ साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के पूर्व की हैं। इस प्रकार युगपद्वाद और अभेदवाद की निकटता के आधार पर सिद्धसेन को किसी सम्प्रदाय विशेष का सिद्ध नहीं किया जा सकता है, अन्यथा फिर तो तत्त्वार्थ भाष्यकार को भी दिगम्बर मानना होगा, किन्तु कोई भी तत्त्वार्थभाष्य की सामग्री के आधार पर उसे दिगम्बर मानने को सहमत नहीं होगा।
(4) पुनः, आदरणीय उपाध्येजी का यह कहना कि एक द्वात्रिंशिका में महावीर के विवाहित होने का संकेत चाहे सिद्धसेन दिवाकर को दिगम्बर घोषित नहीं करता हो, किन्तु उन्हें यापनीय मानने में इससे बाधा नहीं आती है, क्योंकि यापनीयों को भी कल्पसूत्र तो मान्य था ही, किन्तु कल्पसूत्र को मान्य करने के कारण वे श्वेताम्बर भी तो माने जा सकते हैं। अतः, यह तर्क उनके यापनीय होने का सबल तर्क नहीं है। कल्पसूत्र श्वेताम्बर और यापनीयों के पूर्व का ग्रंथ हैं और दोनों को मान्य है, अतः कल्पसूत्र को मान्य करने से वे दोनों के पूर्वज भी सिद्ध होते हैं।
आचार्य सिद्धसेन के कुल और वंश संबंधी विवरण भी उनकी परंपरा निर्धारण

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