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175 (9) जटासिंहनन्दी ने वरांगचरित के नौवें सर्ग में कल्पवासी देवों के प्रकारों का जो विवरण प्रस्तुत किया है, वह दिगम्बर परंपरा से भिन्न है। वैमानिक देवों के भेद को लेकर श्वेताम्बर और दिगम्बर परंपरा में स्पष्ट रूपसे मतभेद हैं। जहाँ श्वेताम्बर परंपरा वैमानिक देवों के 12 विभागमानती है, वहाँ दिगम्बर परंपरा उनके 16 विभागमानती है। इस सन्दर्भ में जटासिंहनन्दी स्पष्ट रूप से श्वेताम्बर याआगमिक परंपरा के निकट हैं । वे नौवेंसर्ग के द्वितीय श्लोक में स्पष्ट रूप से यह कहते हैं कि कल्पवासी देवों के बारह भेद हैं"। पुनः, इसी सर्ग के सातवें श्लोक से नौवें श्लोक तक उत्तराध्ययनसूत्र के समान उन 12 देवलोकों के नाम भी गिनाते हैं । यहाँ वे स्पष्ट रूप से न केवल दिगम्बर परंपस से भिन्न होते हैं, बल्कि किसी सीमा तक यापनीयों से भी भिन्न प्रतीत होते हैं। यद्यपि यह संभावना है कि यापनीयों में प्रारंभ में आगमों का अनुसरण करते हुए 12 भेद मानने की प्रवृत्ति रही होगी, किन्तु बाद में दिगम्बर परंपरा या अन्य किसी प्रभाव से उनमें 16 भेद मानने की परंपरा विकसित हुई होगी। तत्त्वार्थसूत्र के सर्वार्थसिद्धि मान्य पाठ में तथा तिलोयपण्णत्ति में इन दोनों ही परम्पराओं के बीज देखे जाते हैं। तत्त्वार्थसूत्र का सर्वार्थसिद्धि मान्य यापनीय पाठ जहाँ देवों के प्रकारों की चर्चा करता है, वहाँ वह 12 का निर्देश करता है, किन्तु जहाँ वह उनके नामों का विवरण प्रस्तुत करता है, तो वहाँ 16 नाम प्रस्तुत करता है"। यतिवृषभ को तिलोयपण्णत्ति में भी 12 और 16 दोनों प्रकार की मान्यताएँ होने का स्पष्ट उल्लेख पाया जाता है"। इससे स्पष्ट लगता है कि प्रारंभ में आगमिक मान्यता का अनुसरण करते हुए यापनीयों में और यदि जटासिंहनन्दी कूर्चक हैं, तो कूर्चकों में भी कल्पवासी देवों के 12 प्रकार मानने की परंपरा रही होगी। आगे, यापनीयों में 16 देवलोकों की मान्यता किसी अन्य परंपरा के प्रभाव से आयी होगी।
__ (10) वरांगचरित में वरांगकुमार की दीक्षा का विवरण देते हुए लिखा है कि'श्रमण और आर्यिकाओं के समीप जाकर तथा उनका विनयोपचार (वन्दन) करके वैराग्ययुक्त वरांगकुमार ने एकांत में जा सुंदर आभूषणों का त्याग किया तथा गुण, शील, तप एवं प्रबुद्ध तत्व रूपी सम्यक् श्रेष्ठ आभूषण तथा श्वेत शुभ्र वस्त्रों को ग्रहण करके वे जिनेन्द्र द्वारा प्रतिपादित मार्ग में अग्रसर हुए" । दीक्षित होते समय मात्र आभूषणों का त्याग करना तथा श्वेत शुभ्र वस्त्रों को ग्रहण करना दिगम्बर परंपरा में विरोध में जाता है। इससे ऐसा लगता है कि जटासिंहनन्दी दिगम्बर परम्परा से भिन्न