Book Title: Jain Sahityakash Ke Aalokit Nakshatra Prachin Jainacharya
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith

View full book text
Previous | Next

Page 187
________________ 181 25. तपोधनानाममितप्रभावागणाग्रणी संयमनायकासा। - वरांगचरित- 31/6 26. “आहारदानं मुनि पुङ्गवेभ्यो, वस्त्रान्नदानं श्रमणार्यिकाभ्यः। किमिच्छदानंखलु दुर्गतेभ्यो दत्वाकृतार्थों नृपतिर्बभूव। ___ -वरांगचरित- 23/92 * (ज्ञातव्य है कि मूल में प्रूफ की अशुद्धिसे श्रमण स्थान पर श्रवण छप गया है।) 27. (अ) आपवादिक लिंगसचेललिंगं....। - भगवती आराधना टीका, पृ. 114 (ब) चत्तारिजणाभत्तं उबकप्पेंति... चत्तारिजणा रक्खन्ति दवियमुवकप्पियंतयं तेहि। - भगवती आराधना 661 एवं 663 28. क्रियाविशेषाद्व्यवहारमात्राद्दयाभिरक्षाकृषिशिल्पभेदात्। शिष्टाश्च वर्णाश्चतुरो वदन्ति न चान्यथा वर्णचतुष्टयं स्यात्॥ ___ - वरांगचरित, 25/11

Loading...

Page Navigation
1 ... 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228