Book Title: Jain Sahityakash Ke Aalokit Nakshatra Prachin Jainacharya
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith

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Page 215
________________ 209 आचार्य हेमचंद्र कोउनकी अल्प बाल्यावस्था में ही गुरु द्वारा दीक्षा प्रदान कर दी गई और विधिवत रूप सेउन्हें धर्म, दर्शन और साहित्य का अध्ययन करवाया गया। वस्तुतः हेमचंद्र की प्रतिभा और देवचंद्र के प्रयत्न नेबालक के व्यक्तित्व कोएक महनीयता प्रदान की। हेमचंद्र का व्यक्तित्व भी उनके साहित्य की भांति बहु-आयामी था। वेकुशल राजनीतिज्ञ, महान् धर्मप्रभावक, लोक-कल्याणकर्त्ता एवं अप्रतिम विद्वान् सभी कुछ थे। उनके महान् व्यक्तित्व के सभी पक्षों कोउजागर कर पाना तोयहां सम्भव नहीं है, फिर भी मैं कुछ महत्त्वपूर्ण पक्षों पर प्रकाश डालनेका प्रयत्न अवश्य करूंगा। हेमचंद्र की धार्मिक सहिष्णुता यह सत्य है कि आचार्य हेमचंद्र की जैनधर्म के प्रति अनन्य निष्ठा थी, किंतु साथ ही वे अन्य धर्मों के प्रति सहिष्णु भी थे। उन्हें यह गुण अपने परिवार से ही विरासत में मिला था। जैसा कि सामान्य विश्वास है, हेमचंद्र की माता जैन और पिता शैव थे। एक ही परिवार में विभिन्न धर्मों के अनुयायियों की उपस्थिति उस परिवार की सहिष्णुवृत्ति की ही परिचायक होती है । आचार्य की इस कुलगत सहिष्णुवृति कोजैनधर्म के अनेकान्तवाद की उदार दृष्टि से और अधिक बल मिला। यद्यपि यह सत्य है कि अन्य जैन आचार्यों के समान हेमचंद्र नेभी 'अन्ययोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिका' नामक समीक्षात्मक ग्रंथ लिखा और उसमें अन्य दर्शनों की मान्यताओं की समीक्षा भी की। किंतु इससे यह अनुमान नहीं लगाना चाहिए कि हेमचंद्र में धार्मिक उदारता नहीं थी। वस्तुतः हेमचंद्र जिस युग में हुए थे, वह युग दार्शनिक वाद-विवाद का युग था। अतः हेमचंद्र की यह विवशता थी कि वे अपनी परम्परा की रक्षा के लिए अन्य दर्शनों की मान्यताओं का तार्किक समीक्षा कर परपक्ष का खण्डन और स्वपक्ष का मण्डन करें। किंतु यदि हेमचंद्र की 'महादेवस्तोत्र' आदि रचनाओं एवं उनके व्यावहारिक जीवन कोदेखें तोहमें यह मानना होगा कि उनके जीवन में और व्यवहार में धार्मिक उदारता विद्यमान थी। कुमारपाल के पूर्व वेजयसिंह सिद्धराज के सम्पर्क में थे, किंतु उनके जीवनवृत्त हमें ऐसा कोई संकेत - सूत्र नहीं मिलता कि उन्होंने कभी भी सिद्धराज कोजैनधर्म का अनुयायी बनानेका प्रयत्न किया हो। मात्र यही नहीं, जयसिंह सिद्धराज के दरबार में रहतेहुए भी उन्होंने कभी किसी अन्य परम्परा के विद्वान् की उपेक्षा या अवमानना की हो, ऐसा भी कोई उल्लेख नहीं मिलता। 2 यद्यपि कथानकों में जयसिंह सिद्धराज के दरबार में उनके दिगम्बर जैन आचार्य के साथ हुए वाद-विवाद का उल्लेख

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