Book Title: Jain Sahityakash Ke Aalokit Nakshatra Prachin Jainacharya
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith

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Page 201
________________ में रूपांतरित या रचित हैं, वे निश्चित रूप से यापनीय हैं और इस दृष्टि से विचार करने पर हम स्पष्टतया इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि कसायपाहुडचूर्णियापनीय परंपरा काही ग्रंथ है और इसके लेखकयतिवृषभभी यापनीय हैं। ___जहाँ तक यतिवृषभ और उनके कसायपाहुडचूर्णिसूत्रों के रचनाकाल का प्रश्न है, जयधवला के अनुसार यतिवृषभ आर्य मंक्षु के शिष्य और आर्य नागहस्ति के अन्तेवासी थे और उन्होंने उन्हीं से कसायपाहुड का अध्ययन कर चूर्णिसूत्रों की रचना कीथी, किन्तु इस कथन की विश्वसनीयतासंदेहास्पद है। ___ अभिलेखीय और अन्य साक्ष्यों के आधार पर आर्य मंक्षु और नागहस्ती का काल ईस्वी सन् की दूसरी शती सिद्ध है। प्रथम तो, चूर्णि लिखने की परंपरा जैनों के अतिरिक्त अन्यत्र प्राप्त नहीं होती है, पुनः, जैन परंपरा में भी चूर्णियाँ मात्र छठवींसातवीं शताब्दी से लिखी जाने लगी हैं और वह भी मात्र श्वेताम्बर और यापनीय परंपराओं में ही दिगम्बर परंपरा में कोई चूर्णि नहीं लिखीगई है। पुनः, यापनीय परंपरा में भी कसायपाहुड के अतिरिक्त अन्य किसी ग्रंथ पर चूर्णि लिखी गई हो, इसके संकेत प्राप्त नहीं होते, जबकि श्वेताम्बर परंपरा में कर्म साहित्य और आगमिक साहित्य पर लगभग 20 से अधिक चूर्णियाँ लिखी गई हैं। कसायपाहुडचूर्णि की श्वेताम्बर परंपरा की कम्मपयडीचूर्णि, सतकचूर्णि और सित्तरीचूर्णि से शैलीगत निकटता भी यही सूचित करती है कि कसायपाहुडचूर्णि कारचनाकालभी लगभग छठवीं-सातवीं शती होगा और इसी आधार पर यतिवृषभ का काल भी यही मानना होगा। अधिकांश दिगंबर और श्वेताम्बर विद्वानों ने उनका यही काल माना भी है। बाधा यही है कि इससे वे कल्पसूत्र एवं नन्दीसूत्र की स्थविरावलियों में उल्लिखितआर्य मंक्षु एवं नागहस्ति के शिष्य और अंतेवासी न होकर परंपरा - शिष्य ही सिद्ध होंगे। क्योंकि इन्होंने आर्य मंक्षु और नागहस्ति के मतों का उल्लेख किया है और आर्य मंक्षु का उपदेश विच्छिन्न और नागहस्ति के उपदेश कोअविच्छिन्न माना है, इसी आधार पर धवलाकार ने इन्हें उनका शिष्यमान लिया है। ____ उल्लेख से सिद्ध है कि तिलोयपण्णत्ति की रचना के पूर्व कम्मपयडीचूर्णि की रचना हो चुकी थी। इससे यह सिद्ध होता है कि यतिवृषभ का काल संभवतः छठवीं शताब्दी है, क्योंकि अन्य प्राचीनचूर्णियों का रचनाकाल भी यही है। पं. हीरालालजी ने कम्मपयडी शतक और सित्तरी चूर्णियों के मंगल पद्यों की शब्दावली और शैलीगत

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