Book Title: Jain Sahityakash Ke Aalokit Nakshatra Prachin Jainacharya
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith

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Page 191
________________ 185 उल्लिखित अनेक तथ्यों की स्वीकृति उन्हें यापनीय परंपरा से ही सम्बद्ध करती है। श्रीमती कुसुम पटोरिया भी इसी निष्कर्ष पर पहुँचती हैं। वे लिखती हैं कि 'महाकवि पुष्पदन्त के महापुराण के टीकाकार ने जिस परंपरा के आधार पर इन्हें आपलीसंघीय कहा है, वह परंपरा वास्तविक होनी चाहिए। साथ ही, अनेक अन्यतथ्यों से भी इनके यापनीय होने कासमर्थन होता है। इनके अतिरिक्त भी डॉ. कुसुम पटोरिया ने स्वयम्भू के ग्रंथों के अध्ययन के आधार पर अन्य कुछ ऐसे प्रमाण प्रस्तुत किये हैं , जिससे वे कुछ मान्यताओं के संदर्भ में दिगम्बर परंपरा से भिन्न एवं यापनीय प्रतीत होते हैं। 1. दिगम्बर परंपरा के तिलोयपण्णत्ती, त्रिलोकसार और उत्तरपुराण में राम (बलराम) को आठवाँ और पद्म (रामचन्द्र) को नौवाँ बलदेव बताया गया है, जबकि श्वेताम्बर ग्रंथों, यथा-समवायांग, पउमचरियं, त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित, अभिधानचिन्तामणि, विचारसारप्रकरण आदि में पद्म (राम) को आठवां और बलराम को नौवाँ बलदेव कहा गया है। राम का पद्म नाम दिगम्बर परम्परानुसारी नहीं है, राम का पद्म नाम मानने के कारण रविषेण और स्वयंभूदोनों यापनीय प्रतीत होते हैं। देवकी के तीन युगलों के रूप में छह पुत्र कृष्ण के जन्म के पूर्व हुए थे, जिन्हें हरिणेगमेसी देव ने सुलसा गाथापत्नी के पास स्थानांतरित कर दिया था। स्वयम्भू के रिट्ठनेमिचरिउ का यह कथानक श्वेताम्बर आगम अतंकृत्दशा में यथावत् उपलब्ध होता है। स्वयंभू द्वारा आगम का यह अनुसरण उन्हें यापनीय सिद्ध करता है। 3. स्वयम्भूने पउमचरिउ में देवों की भोजनचर्या के संबंध में उल्लेख किया है कि गन्धर्व पूर्वाह में, देव मध्याह में, पिता-पितामह (पितृलोक के देव) अपराह में और राक्षस, भूत, पिशाच एवं ग्रह रात्रि में खाते हैं, जबकि दिगम्बर परंपरा के अनुसार देवता कवलाहारी नहीं हैं, उनके अनुसार देवताओं का मानसिक आहार होता है (देवेसुमणाहारी)। इन्होंने कथास्त्रोत का उल्लेख करते हुए क्रम से महावीर, गौतम, सुधर्म, प्रभव, कीर्ति और रविषेण का उल्लेख किया है। प्रभव को स्थान देना उन्हें दिगम्बर परम्परासे पृथक्करता है, क्योंकि दिगम्बर परम्परा में इनके स्थान पर विष्णुका

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