Book Title: Jain Sahityakash Ke Aalokit Nakshatra Prachin Jainacharya
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith

View full book text
Previous | Next

Page 183
________________ 177 आहारदान, श्रमणों और आर्यिकाओं को वस्त्र और अन्नदान तथा दरिद्रों को याचित. दान (किमिच्छदानं) देकर कृतार्थ हुआ।” यहाँ प्रश्न उपस्थित होता है कि मूल श्लोक में जहाँ मुनि पुङ्गवों के लिए आहारदान का उल्लेख किया गया है, वहां श्रमण और आर्यिकाओं के लिए वस्त्र और अन्न (आहार) के दान का प्रयोग हुआ है। संभवतः, यहाँ अचेल मुनियों के लिए ही मुनिपुङ्गव' शब्द का प्रयोग हुआ है और सचेल मुनि के लिए श्रमण' । भगवती आराधना एवं उसकी अपराजित की टीका से यह स्पष्ट हो जाता है कि यापनीय परम्परा में अपवाद मार्ग में मुनि के लिए वस्त्र-पात्र ग्रहण करने का निर्देश है। वस्त्रादि के संदर्भ में उपरोक्त सभी तथ्यों को दृष्टिगत रखते हुए यह कहा जा सकता है कि जटासिंहनन्दी और उनका वरांगचरित भी यापनीय/कूर्चक परंपरा से सम्बद्ध रहा है। (13) वर्ण-व्यवस्था के संदर्भ में भी वरांगचरित के कर्ता जटासिंहनन्दी का दृष्टिकोण आगमिक धारा के अनुरूप एवं अति उदार है। उन्होंने वरांगचरित के पच्चीसवें सर्ग में जन्मनाआधार पर वर्ण व्यवस्था का स्पष्ट निषेध किया है। वे कहते हैं कि वर्ण व्यवस्था कर्म विशेष के आधार पर ही निश्चित होती है, इससे अन्यरूप में नहीं "जातिमात्र से कोई विप्र नहीं होता, अपितु ज्ञान, शील आदि से ब्राह्मण होता है। ज्ञान से रहित ब्राह्मण भी निकृष्ट है, किन्तु ज्ञानी शूद्र भी वेदाध्ययन कर सकता है। व्यास, वसिष्ठ, कमठ, कण्ठ, द्रोण, पराशरआदिने अपनी साधना और सदाचार से ही ब्राह्मणत्व को प्राप्त किया था। इस प्रकार हम देखते हैं कि वर्ण-व्यवस्था के संदर्भ में वरांगचरितकार का दृष्टिकोण उत्तराध्ययन आदि की आगमिक धारा के निकट है। पुनः, इस आधार पर यह भी कहा जा सकता है कि जटासिंहनन्दी उस दिगम्बर परम्परा के नहीं हैं, जो शूद्र जलग्रहण और शूद्र मुक्ति का निषेध करती है। इससे जटासिंहनन्दी और उनके ग्रंथवरांगचरित के यापनीय अथवा कूर्चक होने कीपुष्टि होती है। संदर्भ1. .... यापनीयसंघप्रतीतकण्डूर्णणाब्धि ...। जैन शिलालेख संग्रह, भाग 2, लेखक्रमांक 160. 2. देखें - वरांगचरित, भूमिका (अंग्रेजी), पृ. 16.

Loading...

Page Navigation
1 ... 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228