Book Title: Jain Sahityakash Ke Aalokit Nakshatra Prachin Jainacharya
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith

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Page 166
________________ 160 धर्मसंग्रहणी यह हरिभद्र का दार्शनिक ग्रंथ है। 1296 गाथाओं में निबद्ध इस ग्रंथ में धर्म के स्वरूप का निक्षेपों द्वारा निरूपण किया गया है। मलयगिरि द्वारा इस पर संस्कृत टीका लिखी गई है। इसमें आत्मा के अनादि अनिधनत्व, अमूर्त्तत्व, परिणामित्व ज्ञायकस्वरूप, कर्तृत्व-भोक्तृत्व और सर्वज्ञ-सिद्धि का निरूपण किया गया है। लोकतत्त्वनिर्णय लोकतत्त्वनिर्णय में हरिभद्र नेअपनी उदार दृष्टि का परिचय दिया है। इस ग्रंथ में जगत्-सर्जक-संचालक के रूप में मानेगए ईश्वरवाद की समीक्षा तथा लोक-स्वरूप की तात्त्विकता का विचार किया गया है। इसमें धर्म के मार्ग पर चलनेवालेपात्र एवं अपात्र का विचार करतेहुए सुपात्र कोही उपदेश देनेके विचार की विवेचना की गई है। दर्शनसप्ततिका इस प्रकरण में सम्यक्तवयुक्त श्रावकधर्म का 120 गाथाओं में उपदेशसंगृहीत है। इस ग्रंथ पर श्रीमानदेवसूरिकी टीका है। ब्रह्मसिद्धिसमुच्चय _आचार्य हरिभद्र द्वारा रचित इस संस्कृत ग्रंथ में कुल 423 पद्य ही उपलब्ध हैं। आद्य पद में महावीर कोनमस्कार कर ब्रह्मादि के स्वरूप कोबतानेकी प्रतिज्ञा की है। इसग्रंथ में सर्वधर्मों का समन्वय किया गया है। यहग्रंथअपूर्णप्रतीत होता है। सम्बोधप्रकरण 1590 पद्यों की यह प्राकृत रचना बारह अधिकारों में विभक्त है। इसमें गुरु, कुगुरु, सम्यक्त्व एवं देव का स्वरूप, श्रावकधर्म और प्रतिमाएं, व्रत, आलोचना तथा मिथ्यात्व आदि का वर्णन है। इसमें हरिभद्र के युग में जैन मुनि संघ में आए हुए चारित्रिक पतन का सजीव चित्रण है जिसकी चर्चा हम पूर्व में कर चुके हैं। धर्मबिन्दुप्रकरण 542 सूत्रों में निबद्ध यह ग्रंथ चार अध्यायों में विभक्त है। इसमें श्रावक और श्रमण-धर्म की विवेचना की गई है। श्रावक बनानेके पूर्व जीवन कोपवित्र और निर्मल बनानेवालेपूर्व मार्गानुसारी के पैंतीस गुणों की विवेचना की गई है। इस पर मुनिचंद्रसूरि नेटीका लिखी है।

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