Book Title: Jain Pujanjali
Author(s): Rajmal Pavaiya Kavivar
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 12
________________ प्रभु जो मैंने लाखों यतन करे सम्यक दर्शन के बिन मैंने भव के भ्रमण करे ॥ प्रभु० ॥ तत्व चिन्तवन कबहुं न कोनो, शास्त्र हु श्रवण करे। एक बार रुचि पूर्वक नाही, उर जिन वचन घरे ।। प्रभु० ॥ कोटिक वर्षों तक प्रभु मैने, तप भी गहन करे। बिन त्रिगुप्ति के स्वामी, मैने कर्म न हनन करे । प्रभु० ॥ क्रिया कान्ड में धर्म मानकर, पर के भजन करे। निजस्वरूप को कियो न चिन्तन, भवदुख सहन करे।। प्रभु० ॥ ज्ञान की निर्मल ज्योति जली तत्त्व प्रतीति होत ही सगरी मिथ्या बुद्धि टली ॥ ज्ञान० ॥ अनतानुबंधी की माया में निज बुद्धि छली । दृष्टि बदलते ही प्रभु मेरी दिशा आज बदली ।। ज्ञान० ॥ निज परिणति रसपान करत ही मन की खिली कली। मिथ्या भ्राति मिटी क्षण भर में जो था सदा पलो ।। ज्ञान० ॥ जो तू आत्म ध्यान चित धरतो यह दुर्लभ मनुष्य भव तेरो, छिन में अरे सुधरतो ॥ जो० ॥ विषय कपाय कीच से बाहर, ले वैराग्य निकरतो। आपा पर को भेद जानतो, सम्यक निर्णय करतो ॥ जो० ॥ पंच महाव्रत धारण करके, जो संयम आदरतो । रत्नत्रय की नाव बैठकर, जल्दी पार उतरतो ।। जो० ॥ ज्ञानपवन से अष्ट कर्म रज, नेक समय में हरतो । सादि अनंत समाधि प्राप्त कर सुख अनंत तू भरतो ॥ जो० ॥ निज प्रातम सिंगार सबेरे । समकित मुकुट, ज्ञान को कुन्डल, कंगन चारित केरे । निज० । संयम तिलक हार सामायिक, फिर निज रूप निहेरे । निज दर्पण में निज को देखे, पर की ओर न हेरे । निज० । निज को दर्शन निज को पूजन, निज को जाप जपेरे। निज चिन्तन निज मनन मिटावत, जनम जनम के फेरे। निज० ।

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