Book Title: Jain Pujanjali
Author(s): Rajmal Pavaiya Kavivar
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 10
________________ भले ही उन्हें आज तक प्रकाशित होने का सौभाग्य प्राप्त न हुआ हो परन्तु वे उनके भीतर तो प्रकाशित ही थीं यदि वहां प्रकाशित न होती तो बाहर आती कसे? अध्यात्म के इस युग में इस प्रकार के उदाहरण नित्य बनते जा रहे है। प्रकाश में आने पर इनकी यह कला इस युग को क्या प्रदान करेगी यह तो युग बतायेगा। मेरी तो प्रभु से यह प्रार्थना है कि इनके भीतर उदित यह कला चन्द्रमा की एक एक कला की भाँति दिन दिन बढ़ती हुई पूर्ण हो जाए और इस विश्व पर अमृत बरसा कर सर्वत्र शान्ति रस का प्रसार करे। उनकी इस 'पूजाँजलि' का प्रचार अधिकाधिक हो इस मङ्गल कामना के साथ । जिनेन्द्र वर्णी 8 गुरु बिन कौन गति मेरी » भव विकट वन मैं लगाऊँ प्रति समय फेरी ॥ गुरू० ॥ कर्म वदरी ने मुझे हर बार है घेरी । नाव मेरी डूबने में है न अब देरी ॥ गुरू० ॥ शद्ध मन की भावना से है विनय मेरी। बाँह थामो लाज राखो मैं शरण तेरी ॥ गुरू० ॥ " हमारे गुरु मंगलदातार 3 पंच महाव्रत साधे, अट्ठाईस मूलगुण धार । सव जीवों को अभयदान दें, सव विधि हिंसा टार ॥ हमारे० ॥ हित मित सत्य वचन प्रिय बोलें, सजे शील सिंगार ।। नाहीं अंतर बाह्य परिग्रह, निज से ही बस प्यार ॥ हमारे० ॥ निज स्वरूप ही प्रतिपल चिन्तत, निर्मल संयम धार । स्वयं तरें औरों को तारें, ले जाएं भव पार ॥ हमारे० ॥ 8 आज मेरो नोंद नसानी होx गुरू चरणन में बैठ सुनी, मैंने जिनवाणी हो ॥ आज० ॥ भव भव व्याकुल होय फिरी, निज सूध बिसरानी हो। उपजत नसत देह को अब तक, अपनी जानी हो ॥ आज० ॥ श्रत उपदेश ग्रहण करते ही, राह दिखानी हो। निज पर भेद लख्यो मैंने ज्यों, पय अरु पानी हो ॥ आज.।।

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