Book Title: Jain Pujanjali
Author(s): Rajmal Pavaiya Kavivar
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 9
________________ मंगल कामना आज के इस क्रान्तिकारी युग में तत्व ज्ञान की चर्चा प्रत्येक शास्त्र सभा में सुनने को मिलती है। इस अध्यात्म विकास के मार्ग में ये युग क्रान्ति कोई छोटी बात नहीं है। एक क्षण में तो एक आम्र फल भी प्राप्त नहीं होता फिर जो फल जीवन विकास के साथ सम्बन्धित हैं उसकी प्राप्ति एक क्षण में कैसे हो सकती है ? सोपान दर सोपान ऊपर चढ़ना ही तो विकास है। फिर कुछ काल पश्चात वह एकदम बदला सा प्रतीत होता है। इसी प्रकार यह अध्यात्म की क्रान्ति का युग है। परन्तु क्या यह क्रान्ति यहाँ तक आकर ही बस हो जायेगी ? क्रान्ति रुक सकती है परन्तु विकास नहीं, वह तो विकास है। वह अवश्य ही आगे चलेगा. चलता रहेगा। अपनी चरम सीमा तक और अगर यह सिद्धान्त सत्य है तो हम आश्वस्त रहना चाहिए कि अध्यात्म का, भक्ति का तथा धर्म का, कवित्व का यह प्रवाह निरन्तर प्रवाहित रहेगा। __ भक्ति जिसकी अभिव्यक्ति पूजा के द्वारा होती है पाद प्रक्षालन स्मरण. चिन्तन, आह्वानन, सन्निधिकरण, अर्चन भजन, कीर्तन गायन, नर्तन आदि न जाने कितने अङ्ग इसके विस्तार में समाये हुए हैं। इस सवका अवसान वास्तव में आत्मार्पण में होता है। यदि आत्मार्पण न हो तो पूजा एक शुभ क्रिया मात्र रह जाती है परन्तु आत्मार्पण हो जाने पर वह अनुभव साक्षात रूप से मोक्ष का कारण बन जाता है। भोपाल निवासी श्री राजमल जी पवैया इसके एक उदाहरण हैं यद्यपि अभी आत्मार्पण वाली अवस्था दूर है तथापि भक्ति युक्त कवित्व के अकल्पित प्रवाह में उनकी लेखनी से अब तक एक हजार से अधिक आध्यात्मिक गीत और लगभग एक सौ पूजायें निकल चुकी हैं फिर भी लेखनी झक नहीं रही है। गीत पूजाओ की रचना करते रहना ही मानो उनका व्यसन बन गया है। मन १६६२ में उनका यह स्रोत बरावर बह रहा है और बहता रहेगा। पूजा के क्षेत्र में कोई भी विषय उन्होंने नहीं छोड़ा है। क्या पंच परमेष्ठी देव शास्त्र गुरु, चतु विशनि तीर्थङ्कर, सीमंधर प्रभु गौतम स्वामी बाहुबलि क्या पच बालयति, कुन्द कुन्द आचार्य तथा सरस्वती माता समयसार तथा पर्व पूजाये आदि सब ही तो समेट लिया है उन्होंने अपनी परधि में। प्रत्येक पूजा अध्यात्म रस से ओत-प्रोत है और इस युग के अनुमार समयसार के रङ्ग में रङ्गी हुई है। व्यवहार भूमि पर पसन्द भी बहुत की जा रही हैं ।

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