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अष्टम अध्याय कुन्दकुन्द के प्रथमतः भट्टारक होने की कथा
मनगढन्त
प्रथम प्रकरण भट्टारक होने की कल्पना का हेतु कुन्दकुन्द ने स्वयं को अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु का परम्परा-शिष्य तो कहा है, किन्तु अपने साक्षाद्गुरु का किसी भी ग्रन्थ में उल्लेख नहीं किया। मुनि कल्याणविजय जी ने इसका कारण यह बतलाया है कि कुन्दकुन्द आरम्भ में यापनीयसंघ के साधु थे। उसमें विक्रम की छठी शताब्दी के लगभग चैत्यवास की प्रवृत्ति आरंभ हो गई थी। यापनीयसाधु राजा आदि से भूमि-दान वगैरह लेने लगे थे। अर्वाचीन कुन्दकुन्द जैसे त्यागियों को यह शिथिलता अच्छी नहीं लगी। उन्होंने केवल स्थूल परिग्रह का ही नहीं, बल्कि अब तक इस सम्प्रदाय में जो आपवादिक लिंग के नाम से वस्त्रपात्र की छूट थी, उसका भी विरोध किया और तब तक प्रमाण माने जाने वाले श्वेताम्बर आगम-ग्रन्थों को भी इन उद्धारकों ने अप्रामाणिक ठहराया और उन्हीं आगमों के आधार पर अपनी तात्कालिक मान्यता के अनुसार नये धार्मिक ग्रन्थों का निर्माण करना शुरू किया। किन्तु उनके इस क्रियोद्धार में यापनीयसंघ के अधिकतर साधु सम्मिलित नहीं हुए। उनके गुरु भी शामिल नहीं हुए, इसलिए कुन्दकुन्द ने उन्हें शिथिलाचारी मानकर अपने ग्रंथों में उनके नाम का उल्लेख नहीं किया। मुनि जी के शब्द नीचे उद्धृत किये जा रहे हैं
"कुन्दकुन्दाचार्य ने अपने किसी भी ग्रन्थ में अपनी गुरु - परम्परा का ही नहीं, अपने गुरु का भी नामोल्लेख नहीं किया। इससे मालूम होता है कि कुन्दकुन्द के क्रियोद्धार में उनके गुरु भी शामिल नहीं हुए होंगे और इसी कारण से उन्होंने शिथिलाचारी समझकर अपने गुरु-प्रगुरुओं का नाम-निर्देश नहीं किया होगा।" (श्र.भ.म./ पा.टि./ पृ. ३२७)।
१. देखिये, अध्याय २/प्रकरण २/शीर्षक ३।
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