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जैनन्यायखण्डखाद्यम्
ऐङ्कारजापवरमाप्य कवित्ववित्त्व.
वाञ्छासुरद्रमुपगङ्गमभङ्गरङ्गम् । सूक्तैर्विकासिकुसुमैस्तव वीर ! शम्भो
रम्भोजयोश्चरणयोर्वितनोमि पूजाम् ॥१॥ गडा के निकट "ऐं" इस बीज मन्त्र के जप के वररूप में, जिसके सामर्थ्य का कभी ह्रास नहीं होता, ऐसे कवित्व और विद्वत्ता की कामना को पूर्ण करनेवाले देवद्रम-कल्पवृक्ष को पाकर उसके सद्वचन रूपी खिले हुये पुष्पों से, हे महावीर ! मैं तुम्हारे चरण कमलों का पूजन करने जा रहा हूँ, क्योंकि तुम शम्भुकल्याण के उद्भवस्थान हो । ___इस श्लोक के द्वारा 'महावीरस्तव' जिसका दूसरा नाम 'न्यायखण्डखाद्य' है उसके रचयिता आचार्य यशोविजय जी ने निर्विघ्नता के साथ इस ग्रन्थ की समाप्ति के उद्देश्य से अपने इष्ट मन्त्र ऐकार का स्मरण किया है और वर्तमान तीर्थाधीश्वर वर्धमान स्वामी के प्रति विशिष्ट भक्ति प्रकट करने तथा अपने ग्रन्थ के श्रवण में शिष्यों को सावधान करने के लिए इस ग्रन्थ की रचना की प्रतिज्ञा की है।
स्तुत्या गुणाः शुभवतो भवतो न के वा
देवाधिदेव ! विविधातिशयर्द्धिरूपाः । तर्कावतारसुभगैस्तु वचोभिरेभि
स्वद्वारगुणस्तुतिरनुत्तरभाग्यलभ्या ॥२॥ है समस्त देवताओं के अधिष्ठाता देव ! आप सुन्दर वस्तुओं के आस्पद हैं, आपके गुण अनेक प्रकार के हैं, वे सब के सब उत्कृष्ट अतिशयों की ऋद्धि रूप हैं, उनमें कोई गुण ऐसा नहीं जो प्रशंसा के योग्य न हो, फिर भी तर्क के सम्बन्ध