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भूमिका : १५७ भाविक-आचार्य मम्मट ने भाविक अलङ्कार का लक्षण स्पष्ट करते हुए कहा है कि अतीत और अनागत पदार्थ, जो प्रत्यक्ष से कराये जाते हैं, उसको भाविक अलङ्कार कहते हैं
प्रत्यक्षा इव यद्भावाः क्रियन्ते भूतभाविनः, तद्भाविकम् । भूत और भावी यह द्वन्द्व समास है । भाव अर्थात् कवि का अतीत एवं अनागत को भी प्रत्यक्षवत् दिखलाने का अभिप्राय यहाँ रहता है । इसीलिए इसको भाविक अलङ्कार कहते हैं। ____ आचार्य मेरुतुङ्ग ने भाविक अलङ्कार के चार प्रयोग जैनमेघदूतम् में किये हैं । ये चारों प्रयोग अपने भावों को स्पष्ट करने में पूर्णतया सक्षम हैं । यथा
सारस्वप्नर्मनुपरिमितैः सूचितस्तस्य सूनुः श्रीमान्नेमिर्गुणगणखनिस्तेजसां राशिरस्ति। यं द्वाविंशं जिनपतिमिह क्षोणिखण्डे प्रबुद्धा
दिव्यज्ञानातिशयकलिताशेषवस्तु दिशन्ति ॥ इस श्लोक में 'दिव्य ज्ञान' इस कथन द्वारा भाविक अलङ्कार स्पष्ट होता है, क्योंकि यहाँ पर दिव्य ज्ञान द्वारा विश्व की समस्त अशेष वस्तुओं का आकलन के समान वर्णन ओर उदाहरण किया गया है । इसी प्रकार जैनमेघदूतम् में भाविक अलङ्कार के तीन अन्य प्रयोग भी नियोजित हैं, जो उपयुक्त प्रयोग की भाँति ही भावप्रवणता में पूर्ण सक्षम हैं। ____ काव्यलिङ्ग-काव्यप्रकाशकार आचार्य मम्मट ने काव्यलिङ्ग अलकार का लक्षण निरूपित करते हुए कहा है कि हेतु का वाक्यार्थ अथवा पदार्थ अर्थात् एक पदार्थ या अनेक पदार्थ रूप में कथन करने के कारण काव्यलिङ्ग अलङ्कार होता है
__ काव्यलिङ्ग हेतोर्वाक्यपदार्थता।' जैनमेघदूतम् में आचार्य मेरुतुङ्ग ने काव्यलिङ्ग अलङ्कार के अनेक प्रयोग निरूपित किये हैं । ये समस्त काव्यलिङ्ग अलङ्कार के प्रयोग अत्यन्त भावप्रवण हैं, यथा
१. काव्यप्रकाश, १०/११४ । २. जैनमेघदूतम्, १/१५ ।। ३. वही, २/२४; ४/३४, ३५ । .४ काव्यप्रकाश, १/११४ ।
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