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द्वितीय सर्ग परि सामस्त्येन शिरो मस्तकं सन्धुत्वानामिव धूनयत इव । पुनः किरूपान् चित्रस्मितास्यान् -वित्रण आश्वर्येण स्मितं विकस्वर आस्यं मुखं येषां ते तान् ॥१३॥ ___ उस उद्यान में श्रीकृष्ण और श्री नेमिनाथ ने दक्षिण दिशा से आने वाली वायु के झोकों से हिलते हुए शिखरोंवाले तथा सरस विकसित मञ्जरियों के कारण पोले मुखवाले वृक्षों को देखा । हिलते हुए वृक्ष ऐसे लग रहे थे मानो युवावस्था में ही नेमिनाथ की जितेन्द्रियता को देखकर आश्चर्य से सिर पीट रहे हों ॥१३॥
वाता वाद्यध्वनिमजनयन् वल्गु भृङ्गा अगायंस्तालान् वध्र परभृतगणः कीचका वंशकृत्यम् । वल्ल्यो लोलैः किशलयकरैलास्यलीलां च तेनुस्तद्भक्त्येति व्यरचयदिव प्रेक्षणं वन्यलक्ष्मीः ॥ वाता वाद्यध्वनि • हे जलधर वन्यक्ष्मीः वनसम्बन्धिश्रीः इति वक्ष्यमाणप्रकारेण तद्भक्त्या तयोर्द्वयोर्नेमिकृष्णयोः भक्त्या प्रेक्षणं नृत्यं व्यरचयदिव अकरोदिव इतीति किवाता-वायवः वाधवनि वादित्रशब्दं अजनयन् अकुर्वन्, भृङ्गाः भ्रमराः वल्गु मनोज्ञं अगायन् परभूतगणाः कोकिलसमूहः तालान् वध्र, कोचकाः सच्छिद्रवंशाः वंशकृत्यं तेनुः विस्तारयामासुः च पुनः वल्ल्यः लोलेश्चञ्चल: किशलयकरैः पल्लवहस्तः लास्यलीला नृत्यलीलां तेनुः ॥१४॥
उस समय वन को शोभा ऐसी लग रही थी मानो वन्यलक्ष्मी ने उन दोनों (श्रीकृष्ण और श्री नेमिनाथ) की सेवा में नृत्यगीत का आयोजन किया हो। जिसमें वायु वाद्य-यन्त्रों को बजा रहा है, भौंरे सुमधुर गीत गा रहे हों, कोयलों का समूह ताल दे रहा हो छिद्रयुक्त बाँस, वंश वर्णन कर रहे हैं तथा लताएं अपने हिलते हुए पत्तों से नृत्य कर रही हैं ।।१४॥
ताराचारिभ्रमरनयनत्पमवद्दीधिकास्या किञ्चिद्धास्यायितसितसुमा शुङ्गिकाव्यक्तरागा। ताभ्यां तत्र प्रसवजरजः कुङ कुमस्यन्दलिप्ती नानावर्णच्छदनिवसना प्रैक्षि वानेयलक्ष्मीः ॥१५॥ ताराचारि ० हे मेघ ताभ्यां नेमिकृष्णाभ्यां तत्र वने वानेयलक्ष्मीः वनोद्भवाश्रीः प्रैक्षि दृष्टा । किंरूपा वानेयलक्ष्मीः-ताराचारिभ्रमरनयनत्पद्मवत्दोधिकास्या ताराचारिणः कनीनिकावत् आचरन्तो भ्रमरा येषु तानि ताराचारिभ्रमराणि एवं
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