Book Title: Jain Meghdutam
Author(s): Mantungsuri, 
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 344
________________ चतुर्थ सम १०५ (किरणों) के आलिङ्गन से जिसे सन्ध्याकाल में अपने विकास की आशा है ऐसी कुमुदिनी को अपने से अधिक दुखी नहीं मानती अर्थात् कुमुदिनी को तो सायंकाल चन्द्रमा की किरणों का आलिङ्गन प्राप्त होगा ही पर मैं तो प्रभु के भुजापाश में कभी भी नहीं आ सकूँगी ||८|| कोकी शोकाद्वसतिविगमे वासन्ते चकोरी शीतोष्णतु प्रशमसमये मुच्यते नीलकण्ठी । त्यक्ता पत्या तरुणिमभरे कञ्चुकश्चक्रिणेवाऽमत्रं वारां ह्रद इव शुचामाभवं स्वाभवं भोः ! ॥९॥ कोकी शोका० हे पयोद ! कोकी चक्रवाकी वसतिविगमे रात्रिविनाशे शोकात् मुच्यते 'मुच्यते इत्यत्र कर्मकर्तृत्वादात्मनेपदं ज्ञयम्' चकोरी वासरान्ते शोकात् मुच्यते । हे पयोद ! नीलकण्ठी मयूरी शीतोष्णतु प्रशमसमये शीतकालोष्णकालविरमसमये शोकात् मुच्यते । भोः इत्यामन्त्रणे । हे पयोद ! तु पुनः अहम् अभवं भवं यावत् शुचां शोकानाम् अमत्रं भाजनम् आभवं सामस्त्येन अभवम् । क इव - ह्रद इव, यथा हृदः वारां पानीयानाम् अमत्रं भाजनं भवति । किं भूताऽहम् - पत्या श्रीनेमिना तरुणिमभरे यौवनभरे व्यक्ता मुक्ता । केन इव - यथा चक्रिणा सर्पेण कञ्जुको त्यज्यते ॥ ९ ॥ - चक्रिणा इव, हे मेघ ! रात के बीतने पर चक्रवाकी, दिन के अन्त में चकोरी तथा - शीत एवं ग्रीष्मऋतु के समाप्त होनेपर वर्षाकाल में मयूरी शोक से मुक्त होती है परन्तु मेरे स्वामी श्रीनेमि ने मुझे पूर्ण यौवन में उसी -प्रकार त्याग दिया जैसे साँप केंचुल को छोड़ देता है। अब में जन्म भर के • लिए उसी प्रकार शोक का पात्र हो गई हूँ जिस प्रकार तालाब हमेशा के लिए जल का पात्र हो जाता है ||९|| शम्बाकृत्योपयमनियमो दुःखहल्याभिरुप्ते भर्तु दक्षाग्रहनिशमनेनाद्य बीजाकृतेऽथ । सिक्तो नेत्राम्बुभिरविरलैः शोकशालिर्विशाले शालेयेऽस्मिन्नुरसि सरसे पश्य पम्फुल्यतेऽसौ ॥ १० ॥ शम्बाकृत्यो० हे पयोद ! पश्य अवलोकय अस्मिन् सरसे रससहिते उरसि शालेये भिन्नरूपकत्वात् हृदयशालिक्षेत्रे असौ शोकशालि: पम्फुल्यते अत्यर्थं फलति । कलक्षणः शोकशालिः -- उपयमनियमो दु: खहल्याभिः उपयमस्य विवाहस्य निय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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