Book Title: Jain Meghdutam
Author(s): Mantungsuri, 
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 338
________________ तृतीय सर्ग हे मेघ ! कहाँ पत्थर और कहां स्वर्णशिखर ? कहाँ बहेड़ा और कहाँ कल्पवृक्ष ? कहाँ काँच के टुकड़े और कहाँ चिन्तामणि ? कहाँ तारे और कहाँ भगवान् सूर्य ? कहाँ अन्य राजकुमार और कहाँ त्रिभुवन गुरु श्रीनेमि प्रभु ? अतः मैंने अपनी सखियों के समक्ष हो यह प्रतिज्ञा कर ली कि मैं योगिनी की तरह उन भगवान् श्रोनेमि के ध्यान में ही अपना सारा जीवन व्यतीत कर लूंगी।। ५४ ।। यद्यप्येनं परिणयमहं विश्वविश्वाभिनन्धोऽतिर्यकारं त्वमिव सलिलासारमाञ्चत्पतिर्मे । आगार्हस्थ्यस्थिति तदपि चावार्षिकक्ष तवैवाsमुष्यवाशां हृदि विवधती सेयमस्थां प्रजेव ॥५५॥ यमप्येनं ० हे धाराधर ! मे मम पतिः श्रीनेमिः यद्यपि एनं परिणयमहं विवाहमहोत्सवम् अतिर्यककारम् असम्पूर्ण कृत्वा माम्बत् अगच्छत् तपिःच सा इयं तेन त्यक्त्वा अहं आगार्हस्थ्यस्थिति गृहस्थावासं यावत् अनुष्येव श्रीनेमेहेक बामां-परिणयनवाञ्छां हवि हृदये विस्वती मास्यां स्थितवती! पतिः ककत्वम् इव, हे पयोद ! यथा त्वं सलिलासारं जलवेगवतीं वृष्टिम् अतिकारम् बसम्पुर्ण कृत्वा अञ्चसि गच्छसि । अहं केव-प्राइव, यथा तदपि च प्रज्म लोकः अवार्षिकक्ष वर्षाकाले नक्षत्राणि यावत् तवैव आशां हृदि विववती तिष्ठतिः । किंरूपो मे पतिः-त्वं च, विश्वविश्वाभिनन्धः विश्वेन समग्रेण विश्वेन जगता अभिनन्धः श्लाघनीयः ॥ ५५ ॥ अखिल विश्वाभिवन्दय हे मेघ ! अपर्याप्त वर्षा करके तुम्हारे जाने के बाद भी जिस प्रकार प्रजा पुनः वर्षा की आशा लगाये रहती है उसी प्रकार जगत् पूज्य श्रीनेमि यद्यपि मेरा पाणिग्रहण किये विना ही चले गये पर मैं गृहस्थावस्था तक उनके आने की आशा को हृदय में रखकर जीती रही ॥ ५५ ॥ इति श्रीविधिपक्षमुख्याभिधान श्रीमदञ्चलगच्छेशश्रीजयकीर्तिसूरिशिष्यपण्डित महीमेरुगणिविरचितायां श्रीमेघदूतबालावबोधवृत्तौ तृतीयः सर्गः ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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