Book Title: Jain Meghdutam
Author(s): Mantungsuri, 
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 339
________________ चतुर्थः सर्गः श्रीनेमीशः प्रतिदिनमथो कोटिमष्टौ च लक्षा हेम्नः प्रातर्दददभिजनं कल्पसालायते स्म । चित्रं कम्पं करकिशलयं नाऽऽप पादप्रदेशे लग्नाः पुण्यस्मितसुमनसश्छायया चाशि विश्वम् ॥१॥ श्रीनेमीशः ० हे जलधर ! अथो अनन्तरं श्रीनेमोशः कल्पसालायते स्म कल्पवृक्षइवाचरति स्म । किं कुर्वन्-प्रतिदिनं दिन-दिनं प्रति प्रातः प्रभातसमये हेम्न: सुवर्णस्य कोटि, च पुनः अष्टौ लक्षाः अभिजनं जनमाश्रित्य वदत् । हे जलघर! तत् चित्रम् आश्चयं यत् करकिशलयं कम्पं 'नाऽऽप पुण्यस्मितसुमनस: पुण्याः पवित्राः स्मिताः विकस्वराः सुमनसः पुष्पाणि अथवा पुण्याः पवित्राः स्मिताः हर्षिताः सुमनसो देवाः पावप्रवेशेलग्नाः, च पुनः छायया कर्तृपदेन विश्वं जगत् माशि व्याप्तम् । ननु कल्पवृक्षस्य किशलयानि कम्पन्ते । सुमनसो मनिप्रदेशे लगन्ति छाया च परिमिता भवतिअतश्चित्रम् ।।१।। परमदानियों की उपमा कल्पवृक्ष से दी जाती है पर नेमिनाथ तो किसी बिन्दु पर कल्पवृक्ष से भी महान् हैं, इसी को प्रस्तुत श्लोक में बताया गया है___ श्री नेमिनाथ प्रतिदिन प्रातः एक करोड़ आठ लाख स्वर्ण मुद्राएँ याचकों को देते हुए कल्पवृक्ष की तरह प्रतीत हो रहे थे पर आश्चर्य तो यह है कि दान देते समय श्री नेमि का हाथ हिलता भी नहीं था जबकि फल देते समय कल्पवृक्ष की शाखायें हिलती हैं । पुष्प की तरह हषित देववृन्द श्रीनेमि के चरणों में लीन थे जबकि कल्पवृक्ष के पुष्प तो ऊपर ही लगते हैं। नेमिनाथ की यशोगाथा पूरे विश्व में फैली थी जबकि कल्पवृक्ष की छाया तो परिमित क्षेत्र में ही रहती है। इन्हीं कारणों से श्रीनेमि कल्पवृक्ष से भी महान् प्रतीत हो रहे थे ।।१।। चिन्तारत्नं दृषदपगतज्ञानलेशः सुरद्रुः स्वर्धनुः सा पशुगतिगता पूर्णकुम्भश्च मृत्स्ना । चिन्तातीतं जगति वितरन् रुक्मरत्नादि दोषैः प्रोक्तैरन्यैरपि परिहतः सैष केनोपमेयः ॥२॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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