Book Title: Jain Meghdutam
Author(s): Mantungsuri, 
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 333
________________ ९४ जैनमेघदूतम् पश्चात् कुतो हेतोः दवयसि दूरे करोषि अथवा दवं दावानलं नयसि । किंरूपान आश्रितान्- शुक्छिखादह्यमानान् शुकः शोकस्य शिखाभिः ज्वालाभिः दह्यमानान् यदि वा अथवा ब्रह्मपर्यायसक्ते ब्रह्मणः ब्राह्मणस्य पर्यायः अपरशब्दः एतावता बाडवः तस्मिन् सक्ते आसक्ने पुरुषे किमपि असम्भाव्यं न सर्वमपि सम्भाव्यमेव भवति । अत्र शब्दभेदत्वात् ब्रह्मणः परब्रह्मणः पर्यायः अपरशब्दः मोक्षः तस्मिन् सक्ते इत्यर्थः ॥४६॥ . दुःखी माता पिता को समझाकर श्रीकृष्ण ने नेमि से कहा विनयरूपी जल के समुद्र हे बन्धु ! अपने आश्रितों (सम्बन्धियों) को पहले सुखी बनाकर अब उन्हें शोक रूपी अग्नि में क्यों जला रहे हो ? अथवा मोक्ष के इच्छुक के लिए कुछ भी करना असम्भव नहीं है अर्थात् मोक्षार्थी बिना किसी की परवाह कुछ भी कर सकता है ।। ४६ ॥ कारुण्योकश्चरिषु विघृणो बन्धुतायां सुतृष्णा मुक्तौ मूत्तिद्विषि कुलकनीस्वीकृतौ वीततृष्णः । कोलोनाप्तेर्दरविरहितः संसृतेः कान्दिशीकः प्रारब्धार्थस्त्यजसि भजसेऽप्रस्तुतांस्तन्नमस्ते ॥४७॥ कारुण्योक० हे बन्धो ! त्वं चरिषु पशुषु कारुण्योकः दयागृह बन्धुतायां बन्धुसमूहे विघृणः निर्दयः । हे बन्धो ! त्वं मुक्तौ सुतृष्णक अतिशयेन तृष्णालुः ! किरूपायामुक्तौ-मूर्तिद्विषि मूर्त्याः शरीरस्य द्विष् शत्रुरूपा मूर्तिद्विषु तस्यां मूति द्विषि मक्तौ किल मूत्तिमान् कोपि न भवति । तेजोरूपत्त्वात् तत्र गतसर्वजीवानां त्वं कुलकनीस्वीकृतौ कुलकन्यिकायाः अंगीकरणे वीततृष्णः गतेच्छः । हे बन्धो ! त्वं कोलोनाप्तेः दुर्यशः प्राप्तः दरविरहितः निर्भयः संसृतेः संसारात् कान्दिशोकः भयत्रस्तः । हे नेमे ! त्वं प्रारब्धार्थान् विवाहलक्षणान् अप्रस्तुतार्थान त्यजसि अप्रस्तुतान् दीक्षाग्रहणलक्षणान् अर्थान् भजसे। हे बन्धो.! तत् तस्मात् ते तुल्यं नमोऽस्तु नमस्कारो भवतु ॥ ४७ ।। पशु-पक्षियों पर तो तुम करुणा दिखा रहे रहो पर अपने बन्धुओं के लिए निर्दय हो, शरीर को कष्ट देकर तो तुम मुक्ति के कामी हो परन्तु कुलीन राजीमती को स्वीकार करने के अनिच्छुक हो, लोकनिन्दा की तुम्हें परवाह नहीं परन्तु सांसारिक विषयों से डरते हो, प्रारब्ध अर्थात् राजीमती को तुम त्याग रहे हो पर प्रारब्ध अर्थात् मोक्षमार्ग को ग्रहण कर रहे हो अतः हे मित्र ! तुम्हें नमस्कार है अर्थात् जो मन में आए सो करो ॥४७॥ ... ... . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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