Book Title: Jain Meghdutam
Author(s): Mantungsuri, 
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 314
________________ तृतीय सर्ग (श्रोनेमि) हम लोगों को खुश नहीं करते ? अर्थात् अवश्य करते हैं । अतः . जिस प्रकार भगवान् शंकर चन्द्रमा को सिर पर धारण करते हैं उसी प्रकार हम लोगों को भी इन पर क्रोध नहीं करना चाहिए अपितु . प्रेम से ही मनाना चाहिए ॥१४॥ गान्धारी चावगिति न परं ब्रह्मतो ब्रह्म जन्माद्धृत्वैतासे ध्रुवमुपयतावप्यवाप्तासि तच्च । अस्तुकारात् सुखय ननु नः पादयोः पत्यते ते दास्यः स्मस्ते पटुचटुगिरा राज्यमप्याप्यमीश ! ॥१५॥ गान्धारी चाव० हे मेध ! च पुनः गान्धारी नाम्नी राज्ञी इति अबक् इति अवोचत् । इतीति कि- हे नेमे ! जन्मात् आजन्म यावत् ब्रह्म ब्रह्मव्रतं धृत्वा ब्रह्मतो मोक्षात् परम् अन्यत् किञ्चित् न एतासे न प्राप्तासि, च पुनः ध्रुवं निश्चितं उपयतोऽपि विवाहेऽपि तत् ब्रह्म अवाप्तासि प्राप्तासि । हे देवर ! ननु निश्चितं तर्हि अस्तुकारात् भवदुक्तं प्रमाणीभवतु इति कथनात् नः अस्मान् सुखय सुखिनीः कुरु । हे देवर ! ते तव पादयोः पत्यये पत्यमानमस्ति । ते तव वास्य: स्मः । हे ईश ! पटुचटुगिरा स्पष्टचाटवचनेन राज्यमपि आप्यं प्राप्तु योग्यं । 'निरकेन कृतेन राज्यमपि लभ्यते' इति लोकोपाख्यानकोऽस्ति ॥१५॥ गान्धारी बोलो-हे देवर ! जन्म से ही ब्रह्मचर्यव्रत धारण करके आप ब्रह्म से ऊ'चा कोई पद तो पाओगे नहीं और शादी कर लेने पर भी आप उस पद को प्राप्त करेंगे ही अतः "एवमस्तु" कहकर तुम हम सबको सुखी बनाओ हम तुम्हारे पैरों पर गिरती हैं, हम सब तुम्हारी दासी हैं, हे ईश ! उपयुक्त चाटुकारिता से तो राज्य भो प्राप्त किया जा सकता है, अतः इस चाटुकारिता से हम लोगों को सुख तो दो ॥१५॥ अन्योऽन्यस्यां सरसरसना नेतुरुतकेतुरागा मत्स्यण्डीयुक्त्रिकटुगुटिकाकल्पमित्युक्तवत्यः । प्रेमस्थेमक्षितितलमिलन्मौलिमाणिक्यमालाबालांशुश्रीशरणचरणाम्भोजयोः पेतुरेताः ॥१६॥ अन्योऽन्यस्यां० हे जलधर ! एताः विष्णुपत्न्यः नेतुः नायकस्य श्रीनेमेः प्रेमस्थेमक्षितितलमिलन्मौलिमाणिक्यमालाबालांशुश्रीशरणचरणाम्भोजयोः पेतुः अपतन् । प्रेम्णः स्नेहस्य स्थम्ना बाहुल्येन क्षितितिलेन पृथ्वीपीठेन सह मिलन्ती या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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