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भूमिका : १५५ इत्यादि सूक्तियों को अपने अर्थान्तरन्यास अलङ्कार में समाहित कर आचार्य मेरुतुङ्ग ने अपनी अर्थान्तरन्यास प्रयोग-कला का निदर्शन करवाया है। उपयुक्त प्रयोगों के अनुसार ही आचार्य मेरुतुङ्ग ने अर्थान्तरन्यास के अन्य अनेक प्रयोग' जैनमेघदूतम् में प्रस्तुत कि येहैं।
स्वभावोक्ति-इस अलङ्कार का निरूपण करते हए आचार्य मम्मट ने इसका लक्षण दिया है कि बालक आदि की अपनी स्वाभाविक क्रिया अथवा रूप अर्थात् वर्ण एवं अवयव संस्थान का वर्णन स्वभावोक्ति अलङ्कार है
स्वभावोक्तिस्तु डिम्भादेः स्वक्रियारूपवर्णनम् ॥२ केवल अपने में यथा बालक आदि में रहने वाली क्रिया या रूप का वर्णन, रंग और संस्थान अर्थात् अवयवों की बनावट दोनों का ग्रहण करना है।
आचार्य मेरुतुङ्ग ने स्वभावोक्ति अलङ्कार के मात्र छः प्रयोग ही जैनमेघदूतम् में प्रस्तुत किये हैं, जो अत्यन्त सजीव एवं यथार्थ हैं। इन प्रयोगों में स्वाभाविक दशा का अतीव स्पष्ट एवं सुन्दर चित्रण प्रस्तुत किया गया है। इनमें स्वाभाविक रूप-रंग आदि की समस्त स्थितियाँ विद्यमान हैं । यथा
हेतो कस्मादहिरिव तदाऽऽसञ्जिनीमप्यमुञ्चमां निर्मोकत्वचमिव लघु ज्ञोऽप्यसो तन्न जाने। यद्वा दैवे दधति विमुखीभावमाप्तोऽप्यमित्रे
तर्णस्य स्यात्किमु नियमने मातृजया न कोल: ॥ अब यहाँ पर साँप का केंचुल-त्याग और बछड़े के बाँधने में गाय को जवाबन्धन आदि स्वाभाविक विषयों का कथन होने के कारण स्पष्ट रूप से स्वभावोक्ति अलङ्कार हो रहा है । इसी प्रकार
कृच्चिद्धाराधर ! तब शिवं वार्तशाली देहः सेवेते त्वां स्तनिततडितो राजहंसौ सरोवत् । अव्याबाधा स्फुरति करुणा वृष्टिसर्गे निसर्गा
न्मार्गे दैव्ये गतिरिव रवेः स्वागतं वर्तते ते ॥ १. जैनमेघदूतम्, १/४०, ४४, ४६; २/३१, ३२; ३/७, १३, १८, १९, ५४;
४/१६, १९, ३३, ३६, ३८ । २. काव्यप्रकाश, १०/१११ । ३. जैनमेघदूतम्, १/७ । ४. वही, १/१० ।
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