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साहित्यिक इतिहास संशोधक एवं अन्य सम्पादक भी प्रायः सभी प्रकार में जा रहे थे। इस पृष्ठभूमि में जिस तथ्य ने हमारा ध्यान विशेषरूप से वित किया वह यह था कि जैन परम्परा में एक-एक नाम के कई-कई, कभी-कभी दर्जनों, आचार्य एवं ग्रन्थकार हो गये हैं । प्रसिद्ध प्रसिद्ध जैन शास्त्रों का मुद्दमप्रकाशन तो शरम्भ हो गया था किन्तु जिन शास्वीय पंडितों द्वारा उनके अनुवाद, टीकादि या सम्पादन हुए उनमें ऐतिहासिक प्रज्ञा अत्यल्प होने के कारण, बहुषा नामसाम्य से भ्रमित होकर, एक नाम के विभिन्न कमों एवं साहित्यकारों को उनमें से जो सर्वप्रसिद्ध हुए उनसे अभिमान लिया जाता था यया समन्तभट्ट, पूज्यपाद, अकलंक, प्रभाचन्द्र बादि आचार्यों को तनामों के fafa गुरुयों के समस्त कृतित्व का श्रेय दे दिया जाता था। पं० प्रेमी जी एवं मुक्तार साहब ने ऐसी अनेक गुत्थियों को सुलझाने का सफल प्रयत्न किया । शताब्दी के पांचवें दशक से स्वयं हमारे अनेक लेख 'अमुक नाम के जनगुरु' या 'अमुक नाम के जैन साहित्यकार' पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगे। जैनाचार्यों एवं साहित्यकारों ही नहीं, नामसाम्य के कारण प्रमुख ऐतिहासिक पुरुषों एवं महिलाओं की पहचान में भी वैसी ही कठिनाई एवं भ्रान्तियों के लिए अवकाश रहता था । अतएव, इसप्रकार की समस्त सामग्री एवं सूचनाओं को हमने तभी से नकारादि क्रम से एकत्र करना प्रारम्भ कर दिया । उसमें उत्तरोत्तर संशोधन संबर्द्धन भी होता गया । अपने शोधप्रबन्ध 'प्राचीन भारतीय इतिहास के जैन साधनस्रोत (ई० पू० १०० से सन् ९०० ई० पर्यंन्त )', इतिहास ग्रन्थ 'भारतीय इतिहास: एक दृष्टि', 'प्रमुख ऐतिहासिक जंग पुरुष और महिलाएँ', 'उत्तर प्रदेश और जैनधर्म' आदि के निर्माण में उक्त सामग्री से अभीष्ट सहायता मिली । पत्र-पत्रिकाओं
में लेखों का क्रम भी साथ-साथ चलता रहा ।
वर्तमान २०वीं शती ई० विशेषज्ञता का युग रहा बाया, जिसमें ज्ञानविज्ञान के प्रायः प्रत्येक क्षेत्र मे विधिवत शोध-खोज, अनुसंधान मोर गवेषणा की अभूतपूर्व प्रगति हुई -इन प्रक्रियाओं की तकनीकों और विधानों का भी दुतवेग से विकास हुआ। प्राचीन ग्रंथों के सम्पादन व संशोधन की भी स्तरीब वैज्ञानिक पद्धति प्राप्त हुई। किन्तु विगत कई दशकों में एक अन्तर नक्षित हुआ -जबकि शताब्दी के पूर्वार्थ में कार्यरत अथवा कार्यारंभ करने वाले विद्वान प्रात: स्वान्तः सुब्बाय समर्पित भाव से, श्रम एवं समय की उपेक्षा करके, अपनी क्षमता, शक्ति एवं प्राप्त साधनों का यथाशक्य पूरा उपयोग करते थे, उत्तरा के दशकों में कार्य करने वालों की संख्यावृद्धि तो हुई, किन्तु उनकी मनोवृत्ति तथा कार्य के