Book Title: Jain Jyoti
Author(s): Jyoti Prasad Jain
Publisher: Gyandip Prakashan

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Page 12
________________ (vi) प्रति समर्पण की भावना में पर्याप्त अन्तर सक्षित हो रहा है। पुराना विज्ञान प्राय: निलमी या बल्प सन्तोषी था वह अपनी प्यास बुलाने के लिए स्वयं कुंला सोचता था, साधन सामग्री स्वयं सोचता, जुटाता और संग्रह करता था, और फिर उसका मन्थन करके अपनी गवेषणा प्रस्तुत करने का प्रयास करता था। बाब का विद्वान नाविक नाम एवं व्यवसायिक बुद्धि से अधिक प्रेरित होता है, सब कुछ पका पकाया, सहज-सुलभ चाहता है शोधकार्य में भी सरलतम रूटीन, फारमूल, अमोलिक साधन-स्रोतों का सहारा लेता है, कम से कम समय एवं श्रम के व्यय से अपना शोधप्रबन्ध या ग्रंथ लिख डालने की चेष्टा करता है । अतः, इस बीच, प्राय: पुराने विद्वानों की साधना के फलस्वरूप जो अनेक विविध संदर्भ ग्रन्थ प्रकाश में बा गये हैं, वह भी उसके लिए वरदान हैं । उक्त संदर्भ ग्रन्थों में देश के विभिन्न शास्त्र-भंडारों में संग्रहीत हस्तलिखित प्रतियों की वैज्ञानिक पद्धति से निर्मित सविवरण सूचियां, विविध प्रशस्तियों के संग्रह, शिलालेख संग्रह, पट्टाबलियों-गुर्वावलियों- राज्य वंशालियों-विज्ञप्तिपत्रती माताओं- राजकीय अभिलेखों आदि के संग्रह, प्राचीनपुरावशेषों- कलाकृतियोंferni-yera आदि के सविवरण सूचीपत्र, स्थलनाम कोश, ऐतिहासिक व्यक्तिकोश, विषयविशेषों से सम्बन्धित कोश, विश्वकोश आदि परिगणित हैं। प्राचीन ग्रन्थों के स्तरीय सुसम्पादित संस्करणों की तुलनापरक एवं विवेचनात्मक प्रस्तावमाएं एवं विभिन्न अनुक्रमणिकाएं, परिशिष्ट बादि भी बड़े उपयोगी होते हैं । प्राचीन ग्रन्थों के स्तरीय सम्पादन संशोधन में पं० प्रेमी जी एवं मुस्तार साहब के अतिरिक्त डा० उपाध्ये, प्रो० हीरालाल जी, डा० महेन्द्र कुमार न्यायाचार्य, पं० कैलाशचन्द्र जी, फूलचन्द जी, बालचन्द जी प्रभूति विद्वानों ने उत्तम मानदण्ड स्थापित कर दिये थे, जिनका अनुकरण परवर्ती विद्वानों ने बहुत कम किया है। यह अवश्य है कि उपरोक्त प्रकारों के जो सदर्भ ग्रन्थ प्रकाशित हुए हैं, उनमें अनेक त्रुटियां एवं दोष है, जैसे प्रामाणिक, सम्तोषजनक एवं सेवांगपूर्ण होना चाहिए था, वैसे उनमें से गिने-चुने ही शायद है । किन्तु कुछ न होने से जो कुछ हैं, वह भी पर्याप्त लाभदायक हैं, और फिर ये प्रारम्भिक प्रयास हैं । तो प्रस्तुत ऐतिहासिक व्यक्तिकोश भी ऐसा ही संदर्भ ग्रन्थ है -उसी रूप में उसे ग्रहण करना उचित है। लगभग ७० वर्ष पूर्व, १९१७ ई० में मारा के कुमार देवेन्द्र प्रसाद ने सैन्ट्रल जैन पब्लिशिंग हाउस से स्व० सू० एस० टंक को 'एडिक्शनरी माफ जैना बायोग्रेफी' नाम को छोटो सो पुस्तिका प्रकाशित की पीवो अंग्रेजी वर्णमाला के प्रथमाक्षर 'ए' तक ही सीमित रही । उसमें दिये गये

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