Book Title: Jain Hiteshi 1913 Ank 03
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 4
________________ १३० ( ३ ) कर्कश, कुटिल, न नम्र कर्मचारी सम सारेपदभ्रष्ट होगये पुराने पत्ते न्यारे ॥ देखो सुन्दर स्वच्छ हृदयके कोमल पल्लव, श्री- सम्पादन लगे वहीं पर करने अभिनव ॥ सुप्रबंधसे दूरकर, पक्षपात अविचारको । मानो इस ऋतुराजने, जमा लिया अधिकारको ॥ (४) प्यारे बालकवृन्द, कहो, क्या शिक्षा पाई ? नवपल्लव के सदृश बनोगे तुम सुखदाई ? ज्यों अपने सौन्दर्य और रंगीनीसे ही । खुश करते ये सभी जगतको, सहज सनेही ॥ वैसे ही तुम भी, कहो, पाकर गुणसम्पन्नतारूपरंगके ढंगसे, दोगे हमें प्रसन्नंता ? (५) यथासमय ज्यों मुकुलपुंज, मंजुलता धारेखिलकर खुलकर हुए गन्धसे सबको प्यारे, निजविकास से जन्मभूमिको किया सुगंधित; वैसे ही तुम हृदय- कलीको करो सुविकसित ॥ विद्या - बुद्धि-चरित्रके शुद्ध प्रशस्त सुवाससेश्रेष्ठ बना दो देशको तुम हार्दिक उल्लाससे ॥ ( ६ ) देखो, पावन पवन, यथा वह गन्ध मनोहरदिग्दिगन्त में व्याप्त कर रहा, जाकर घर घर ॥ वैसे ही सबलोग तुम्हारे गुणगण गावें । सुयश तुम्हारा स्वयं जगत भर में फैलावें ॥ फूल, न चेष्टा कुछ करे, गुनगुन गुण गावें भ्रमर । तुम भी गुण-संग्रह करो, होगा सुयश स्वयं अमर ॥ For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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