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राजमहिषियाँ, श्रेष्ठिवर्ग की महिलाएं एवं दासियाँ, इन सब के व्यक्तित्व के विशिष्ट गुणों की चर्चा करते हुए उनके त्यागमय जीवन पर प्रकाश डाला गया है ।
तृतीय अध्याय में तीर्थंकर महावीर के पश्चात् की साध्वियों और विदुषी महिलाओं [ ई० पूर्व ५२७ से ईसा की प्रथम शती तक ] का वर्णन है । इस अध्याय में उस समय की राजनैतिक एवं सामाजिक स्थिति का वर्णन करते हुए जैन धर्म की प्रमुख महिलाओं की धर्म निष्ठा एवं आध्यात्मिक उपलब्धि की चर्चा की गई है ।
चौथे अध्याय में दूसरी शताब्दी से सातवीं शताब्दी तक का वर्णन किया गया है । यद्यपि इस काल में महिलाओं के उल्लेख बहुतायत से प्राप्त नहीं होते है, तथापि आचार्यों की जननी एवं अन्य ऐसी विदुषी महिलाओं के रूप में इनका चित्रण अवश्य हुआ है, जिन्होंने कठिन परिस्थितियों में भी जैन धर्म से अपनी आस्था को डिगने नहीं दिया ।
पाँचवें अध्याय में दक्षिण भारत की उन विशिष्ट महिलाओं का वर्णन है, जिनके त्याग, तपस्या एवं विशिष्ट ज्ञान ने जैन समाज को सदैव उत्प्रेरित किया है । इन महिलाओं ने अपनी निजी धनराशि से मंदिर, वसदि, पौषधशाला, आयागपट्ट आदि बनवाये एवं उनके नियमित खर्च के लिए भी धनराशि की व्यवस्था की ।
छठें अध्याय के अन्तर्गत आठवीं शताब्दी से पन्द्रहवीं शताब्दी में हुई जैन साध्वियों एवं विदुषी महिलाओं के जीवन पर प्रकाश डाला गया है । इस काल में जैन धर्म तपागच्छ, खरतरगच्छ, अंचलगच्छ एवं अन्य सम्प्रदायों में विभक्त हो गया था । उस काल में भी महिलाओं ने दीक्षित होकर आत्म साधना की इस जीवनधारा को सूखने नहीं दिया ।
सातवें अध्याय में सोलहवीं शताब्दी से अठारहवीं शताब्दी तक की जैन धर्म की साध्वियों एवं विदुषी महिलाओं के चरित्र पर प्रकाश डाला गया है ।
परिशिष्ट में समकालीन जैन साध्वियों का विवरण दिया है । मैं इस अध्याय का पुनर्लेखन करना चाहती थी, किन्तु वृद्धावस्था के कारण यह सम्भव नहीं हो सका । अतः सम्पादक डॉ० सागरमल जैन के सुझावानुसार विभिन्न सम्प्रदायों की साध्वियों के सन्दर्भ में उपलब्ध लेख संकलित कर उन्हें संक्षिप्त करके प्रस्तुत कर दिया गया है और उनके लेखक और प्रकाशक का यथा स्थान उल्लेख कर दिया गया है ।
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