Book Title: Jain Dharm aur Murti Puja Author(s): Virdhilal Sethi Publisher: Gyanchand Jain Kota View full book textPage 8
________________ और अन पदार्थ के साथ संयोग होने से इसके वास्तविक स्वरूप पर परदा पड़ा हुआ है और इसकी विभाव परिणति हो रही हैं अर्थात अनंत ज्ञान के स्थान में कुज्ञान और अल्प ज्ञान, अनंत अतीन्द्रिय सुख के स्थान में क्षणिक सुख और दुःख तथा सूक्ष्मता के स्थान में स्थूलता आई हुई है। ये शरीरादि उपाधियां भी इन अचेतन ( कर्म ) परमाणुओं के ही कार्य हैं । इन्हीं कर्म परमाणुओं ने इसकी समस्त शक्तियों को आच्छादित करके इसको मोह जाल में इतना फँसा रक्खा है कि उन शक्तियों का विकास होना तो दूर रहा उनका स्मरण तक भी इसको नहीं हो पाता। इन संसारी जीवों में से जो जीव अपनी आत्मनिधि की सुधि पाकर और अविरत प्रयत्न करके इस चेतन पदार्थ (कर्म) के आवरण को हटा देते हैं वे 'मुक्त' कहलाते हैं । उस समय उनका अनंत ज्ञान मय असली स्वरूप प्रगट हो जाता है और उनकी सम्पूर्ण स्वाभाविक शक्तियां पूर्ण रूप से विकसित हो जाती हैं तथा स्वभाव से ही सूक्ष्म होने से ऊर्ध्वगामी होने के कारण इस प्रकार कर्ममुक्त हो जाने पर लोक के सब से ऊंचे भाग में जा निवास करते हैं । 'जीव की इस परम विशुद्ध अवस्था का नाम ही परमात्मा । इसी के भिन्न २ गुणों और अवस्थाओं की अपेक्षा से अर्हत, जिनेन्द्र, सिद्ध, सर्वज्ञ, वीतराग, शुद्ध, बुद्ध, परंज्योति,Page Navigation
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