Book Title: Jain Dharm aur Murti Puja
Author(s): Virdhilal Sethi
Publisher: Gyanchand Jain Kota

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Page 13
________________ हमको यह भी ज्ञात है कि हमारा ध्येय आत्मस्वरुप की प्राप्ति है और वह एकाग्रता के साथ आत्मा के स्वाभाविक गुणों के चितवन * से हो सकती है किन्तु अधिकांश जीव * मनमें एक ऐसी ज़बरदस्त शक्ति है कि इसको वश में बहुत ही मुश्किल से कर पाते हैं और जिसने मन को जीत लिया है, समझ लीजिये वह सब कुछ करने को समर्थ है। मन को वश में करने की साधना एकाग्रता पूर्वक चितवन के द्वारा उस अपने ध्येय की तरफ़ लगा कर की जाती है। एकाग्रता पूर्वक चितवन का मन पर ऐसा प्रभाव पड़ता है कि कालांतर में ध्याता ही ध्येय हो जाता है अर्थात् वह जैसा बनना चाहता है वैसा ही बन जाता है। अतः यह कथन ठीक है कि मनुष्य के भाग्य का निर्माणकर्ता वह स्वयं ही है । वह निरंतर, जैसा मन में विचार करता है, जैसी भावनायें उसके मन में उत्पन्न होती हैं वैसा ही वह स्वयं भी हो जाता है। वह अपन को और अपने सुख दुःख को जब तक जीवन की वाह्य अवस्थाओं और दूसरे लोगों की कृपा पर अवलम्बित समझता रहता है तभी तक दुखी रहता है और जब यह अनुभव करने लग जाता है कि मैं प्रात्मा हूं, स्वयं अनंत शक्ति का भंडार हूं, अमर हूं, दृढ़ निश्चय के द्वारा प्रत्येक कार्यको करसकताहूं, मैस्वयं जैसा अपने आपको समझता रहता और करता रहता हूं वैसा ही बन जाता हूँ,मैं किसी के आधीन नहीं, किन्तु श्रात्मश्रद्धा और तीव्र इच्छा के द्वारा असंभव को भी संभव कर दिखा सकता

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