Book Title: Jain Dharm aur Murti Puja
Author(s): Virdhilal Sethi
Publisher: Gyanchand Jain Kota

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Page 48
________________ ४४ को बढ़ाने की कोई शक्ति नहीं है और खरों के बनार बढ़ाय से उत्पन्न होने वाली बाजे की इस संगीत ध्वनि में यह शक्ति प्राकृतिक तौर पर ही भरी पड़ी है। आप देखते हैं कि are दिवा में यह पता न होते हुए भी कि उनके बजाने वाले किस भावना से शुक्र कोनमा गाना गा रहे हैं तो भी केवल उनकी ध्वनि मात्र मे हमारा मन सब जगह से न कर उनके सुनने में काम होजाता है। इसमें प्रकट है कि स्वरों के उतार चढ़ाव रूप बाजे की ध्वनि में तो चितवन योग्य किसी भावना का अस्तित्व न होते हुये भी मन को एकाग्र कर देने की शक्ति होती है किन्तु Forer में जिन भावों का चितवन करके मुख्य चढ़ाया जाता है, वे भाव यदि निकाल दिये जायें तो कांरा तृव्य चढ़ाना कुछ भी नहीं कर सकता । वास्तव में वे निश्चित क्रमवाली आठ प्रकार की भावनाएं ही हैं जो एक ही भावना में लगातार बहुत समय तक एकामता रख सकने में समर्थ हमको, धीरे २ उस योग्य बनाती हैं । द्रव्य में ऐसी कोई भी बिशेषता याज नक न तो देखी गई और न सुनी गई कि उसको वाजे कं सुरताल से समानता दी जा सके । जल चंदनादिव्य बहाने के पक्ष में आजकल बहुधा जो कुट कहाजाना है उसका विवेचन अब तक काफी किया जाचुका है

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