Book Title: Jain Dharm aur Murti Puja
Author(s): Virdhilal Sethi
Publisher: Gyanchand Jain Kota

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Page 46
________________ ४२ विनाशनाय जलं ) आदि न कहकर केवल 'मेरा जन्म, जरा, मरण रूपी रोग दूर हो' इस प्रकार क्रम २ मे आठों प्रकार की भावनाओं का चितवन करते हुये चले जावें तो जलचंदनादि द्रव्य के बिना भी Variation of thoughts के उद्देश्य की सिद्धि अच्छी तरह हो सकती है। जल, चंदन आदि द्रव्य में कोई भी ऐसी बात नहीं है कि वह किसी भी प्रकार से एकाता संपादन में सहायक होसके और न यह वान ही है कि 'जन्म, जरा, मरण के नाश के लिये', 'जल चढ़ाता हूँ", एमा कहे बिना वह भावना हो ही न सके । इससे प्रकट है कि इस अष्ट द्रव्यपूजा में भी जो कुछ महत्व है वह द्रव्य में नहीं किन्तु निश्चित क्रम में कीजाने वाली भावनाओं में ही है। इसी प्रकार कंठ किये हुये पाठ, स्तुति आदि के द्वारा भी अल्पशक्ति बालों को एकाग्रता का अभ्यास बहुत आसानी से हो जाना है क्योंकि उसमें भी पूर्व निश्चित क्रम में योड़ २ समय तक उनक एक २ पद के अर्थ पर चितवन करते हुये जाना पड़ता हे नथा ऐसा ही लाभ आदर्श पुरुषों के जीवन की घटनाओं और बारह भावना आदि का किसी पूर्व निश्चित क्रमानुसार चितवन करने से भी होता है । ( ३ ) यह कहना कि जिस तरह किसी गाने वाले का मन बाजे की सुरताल की सहायता से ज्यादा लगता है उसी

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