Book Title: Jain Dharm aur Murti Puja
Author(s): Virdhilal Sethi
Publisher: Gyanchand Jain Kota

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Page 56
________________ ५२ शुद्धि होकर हमारे कर्म नाश होते हैं इसलिये निमित्त कारण रूप में वे हमारे कर्मों के नष्ट करने वाले हैं" । किन्तु इस पर आप स्वयं ही पक्षपातरहित होकर विचार करें तो आपको मालूम हो सकता है कि समझवाले लोगों पर कि जिनकी ही मंग्या इस समय अधिक दिखाई देती हैं इसका वैसा ही असर पड़ता है, जिसका वर्णन ऊपर किया जाचुका है। वे उस निमित्त कारण के रहस्य को समन न पाकर उसको मुख्य कारण ही मान लेते हैं * तथा इसप्रकार अर्थ का अनर्थ होजाता है । * आजकल मंदिरों और तीर्थों के झगड़ों में लाखों रुपया स्वाहा हो रहा है वह किसी से छिपा नहीं है । हमारी धर्मान्धता और पूजा सिद्धान्त से अनभिज्ञताही इसका कारण हैं। जिन मूर्तियों की स्थापना का उद्देश्य श्रपना और दूसरे लोगों का आत्मकल्याण करने का था और जिनके गुणों के चितवन से हर एक मनुष्य स्वतंत्र होकर अपना आत्मकल्याण कर सकता था उन्होंको आजकल जिनके कब्ज़े में वे आजाती हैं व ही अपनी मिल्कियत समझने लग जाते हैं और उनकी सेवा करने और द्रव्य (जल चंदनादि । चढ़ाने की व्यर्थ की बाहरी आडंबर की बातों के लिये, जिनमें कोई धार्मिक तत्व नहीं है, लड़ इ.र विश्वमंत्री के स्थान में कलह का प्रचार करते हैं । यदि आज T हम इस आडम्बर की ( जो धर्म का श्रावश्यक अग नहीं है ) छोड़ तो इस कलह का नाम भी न रहे और लाखों रुपये का जो मुकदमेबाजी और इस आईवर में दुरुपयोग हो रहा है वह न होने पाये।

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